सच, और सच के सिवाय कुछ नहीं!
नेता नहींं, अब बकैत हैं।
"अजीब है, कुर्सी की कहानी, जो चाहे वो करवाए! और, लोग चिल्लाते हैं, दुनिया के मजदूरों एक हो। एक हाल में बैठे लोग जब एक नहीं हैं, तो यह 'दुनिया के मजदूरों एक हो' को ढकोसला न कहा जाए तो और क्या कहा जाए?"
अगर बैैंककर्मींं, यूनियन नेताओं को गिरहकट कहते हैं, तो बेवजह नहीं कहते।
एक सड़ी मछली पूरे तालाब का पानी गंदा कर देती है। सड़ी मछली अन्य मछलियों को गंदे पानी से समझौता कर उसमें रहनें को मजबूर करती हैंं।
फोरम बेवजह की बातें नहीं लिखता। हमारे पास बड़े-बड़े नेताओं के दोहरी बिलिंग का रिकार्ड है। एक बिल नगद और दूसरा यूनियन खाते से।
हमारे पास नेताओं का रिकार्ड है, जिनके प्रवास के सारे खाने, पीने (पानी नहीं शराब), लांडरी, होटल के बिल यूनियन से पूरे डाइम एलावंस के अतिरिक्त भुगतान होते है।
हमारे पास नेताओं की सूची है, जो इंक्वायरी के दौरान बिल तो बैंक से लेते है, लेकिन प्रवास का आतिथ्य खर्च आरोपित कर्मचारी के मथ्थे पड़ता है। यहां वकील की भूमिका में नेेता फीस न सही, पर तरह तरह का अनुग्रह लेेता है, शिष्टाचार के नाम पर।
नेता के नगर भ्रमण के दौरान उस नगर की कौन सी वस्तु बहुत मशहूर है, जानना और फिर देखनें की जिज्ञासा प्रकट करना, अच्छी लगी कहना और फिर जाहिर है सामने वाला समझ जाता है कि अच्छी होने का अभिप्राय क्या होता है।
हमारे पास ऐसे तुच्चे लोगों की फेसरिस्त है, जिनकी जिन्दगी बैंक की कार-जीप का पेट्रोल, डीजल की चोरी से शुरू हुई, फर्जी रिपेयर की बात छोड़िए, अपनें साहबान के इनर गारमेंट धोते, बच्चों की पोटी साफ करते वो महामंत्री बन गए, पांच दस साल में छोटी सी यूनियन में कई लाख का वारा न्यारा कर दिया।
हमारे पास नेता की लिस्ट है, जो यूनियन पर लाखों का कर्ज दिखा कर सदस्यों से, मैनेजरों से, अधिकारियों से वसूली अभियान चलाया, सैकड़ों टेम्परेरी कामगारों से हजारों वसूला और रफादफा किया।
हम ऐसे नेताओं को जानते हैं, जो अपने क्षेत्रीय प्रबंधकों से 5/10 शाखाओं में प्रबंधकों की नियुक्ति का सौदा कर अपने चहेतों की नियुक्तियां सुनिश्चित कर, उनसे नियमित वसूली का जुगाड़ करते रहे हैं।
नेतागीरी बनीं रहे, इसके लिए बड़े नेताओं को अनुग्रहीत करना कोई खास बात नहीं। इसके बीना नेता चिरायु, आयुष्मान नहीं होता!
सीट पर जमें रहने के लिए सीट की मजबूत पाइलिंग जरूरी होती है। इसके लिए राजनीतिक तिकड़म जरूरी होता है और इसके लिए संबंधित राजनीतिक पार्टी के मुखिया की फंडिंग करना बड़े बैंक नेताओं का धंधा है, और सदस्यों को कहा जाता है कि यूनियन गैर-राजनीतिक है।
कुछ यूनियनें ऐसे राजनीतिक दलों से गठजोड़ में हैं जो नक्सल्स, अर्बन नक्सल्स, देशद्रोही, आतंकी, अलगाववादी संगठनों के साथ-साथ, दुश्मन राष्ट्रों के हिमायती हैं, अपनी सैन्य बलों पर सवाल उठाती हैं।
'भारत तेरे टुकड़े होंगे' गैंग के कन्हैया की ढपली पर अधेड़ उम्र का नेता कमर हिलाते डांस करता है, आजादी की मांग करता है, जैसे देश गुलाम हो। गौर करें तो पता चलेगा ये कितने खतरनाक खलनायक है, जो देश तक के नहीं हैं।
जो है नामवाला वही तो बदनाम है। जितना बड़ा नेता उतना बड़ा घपलेबाज। यह बैंक नेताओं की छबि है।
मौत तो उनकी है, जो बीच में हैं, ईमानदार हैंं। वे टूट जाते हैं, चल नहीं पाते, क्योंकि वे यह सब नहीं कर पाते।
हमने किसी बड़े नेता से पूंछा, यूनियनों में इतना झगड़ा क्यों है। बंदे ने बेबाकी से कहा, "पैसे" के लिए। हर यूनियन में आंतरिक जंग के पीछे यूनियन फंड है। जितना बड़ा फंड, उतना बड़ा संघर्ष। शांति वहीं जहां मिलबांट कर खाने की बात है। महामंत्री अपने ट्रेजरर की प्रिसाइन्ड चेकबुक अध्यक्ष जी को दें या प्रबल दावेदार प्रतिद्वंद्वियों की बिलों को आंख मूंद कर पास करें, शांति बहाल रहेगी।
वर्षों तक चलने वाली कार, नेताओं के लिए, उसके माडल के साथ बदल जाती है।
हमनेंं मठों के महामंडलेश्वरों में आधिपत्य की जंग की कहानियां सुनीं है। यजमान को लेकर तीर्थस्थलों पर पंडों की जंग, असली-नकली होनें का जंग, मुकदमें, संपत्ति पर काबिज होनें का संघर्ष और हत्याएं भी। गनीमत है, अभी हमारे संज्ञान में यूनियनों के कब्जे को लेकर कोई हत्या नहीं हुई। बाकी, मार-पीट, टूट-फूट, लाठी-डंडा, लफंगई, बकैती और थोड़ा-बहुत खूनखराबा तक का रिकार्ड है।
चश्मदीद ही नहीं, हम बहुत बड़े राष्ट्रीय संगठन के सम्मेलन का सुरक्षा इंचार्ज रह चुके हैं और असंतुष्टों को कैसे मैनेज करना है, राष्ट्रीय नेताओं की ब्रीफ ले चुका हूं। हर सम्मेलन में ऐसी पेशबंदी होती है और यह काम मेजबान इकाई का होता है। सम्मेलन वहीं होगा, जहां मेजबान इकाई इस काम को करने में सक्षम हो।
सम्मेलनों में एक ही यूनियन के सभी प्रतिनिधि होते हैं, लेकिन नेताओं को बड़ी असुरक्षा रहती है, अपनें ही प्रतिनिधियों से। अजीब है, कुर्सी की कहानी, जो चाहे वो करवाए! और, लोग चिल्लाते हैं, दुनिया के मजदूरों एक हो। एक हाल में बैठे लोग जब एक नहीं हैं, तो यह 'दुनिया के मजदूरों एक हो' को ढकोसला न कहा जाए तो और क्या कहा जाए?
जे.एन.शुक्ला
3.4.2021
9559748834
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