Saturday, March 6, 2021

15-16 March Strike Against Privatisation

न त्वहं कामये राज्यं  न स्वर्गं नापुनर्भवम्।

      कामये दुःखतप्तानां प्रणिनामार्तिनाशनम्॥

                हिमालयं समारभ्य, यायव हिन्दुसरोवरं।

              आतं देवनिर्मितं देशं, हिन्दुस्तानं प्रचक्षेत।।



             15-16 March Strike


Concerns about the privatization of public banks have been confined around employees / officers, whereas this needs to be seen in the broader perspective of socio-economic-political context. To protect the national interest, this topic needs consideration, beyond  self centered profit or loss thoughts .


Employment security or employment opportunities are superficial issues,  they do not carry weigh  in the light of facts and figures in these regards.


The important issue is the money deposited in banks, which is a valuable savings of common people and which is a kind of national wealth, that needs to be safe and used in the development of common people.


In a cursory view, eve the ownership issue is also not strong one. Phone banking was severely disastrous. It happened under government ownership,  bleedingd public banks. And, the Modi government had to capitalize these banks by over three lakh crores in the last five years to save them from casualty.


Like this, private banks have also been victims of loots, but there is no tax payer's money to protect them, so they are acquired by a bank, so that the interests of the stakeholders are protected.


From this point of view, it is another reason that necessitates  public sector banks under govt ownership so that sinking private banks can be bailed out. Ever since the emergence of public banks, the demise of private banks in India ended. The interest of the depositors and employees associated with such banks were protected by merging the failing private banks into public banks. If there were no public banks, the victims of the tragedy of unsuccessful private banks would have been the depositors and the people working in such banks.


Since,  the government stands behind the public banks, the customers associated with these banks remain in a credible sense with regard to their stability, capital, development, public interest etc. But the prevalence of the danger of political misuse of public banking resources and the danger arising from it looms large, as no  Lakshman Rekha has been drawn till date regarding the width, length or depth of politicization.The politicization of bank credit has been the biggest tragedy. Our  regulatory system proved dwarfing to contain such menace..


The present government has avoided interference in the operation of banks, but there is no guarantee that any other party coming to power will not return to the practice of the former governments. The big question is for those who are advocating public banks, ignoring the vital fact that the present plights of public banks are due to their being in public. What is the answer to this?


Now to say one doesn't know the economics, to call someone as Jaichand,  Modi devotee, have no  intellect, citing sarcasm on Sita by lay man , calling one blind to vission, we understand that all these are a sign of  barking up the wrong tree.. However, people have started quoting Ram and Krishna era on this excuse, its good.


The allegations that people, mean retired  bankers, who are now taking pension after completing their bank jobs were totally corrupt and negligent, is indeed the culmination of intellectual bankruptcy. Such a concept means,  all bank pensioners were corrupt and negligent, but getting pension? In other words, it confirms that present bank personnels are corrupt and negligent! If this is taken as true, then there is no justification to keep banks in the public sector. Nation does not need corrupt & negligent people manning PSBs. To maintain, it would mean promoting corruption and negligence. In contrast, corruption or negligence of employees / officers in private banks is an unforgivable crime. Such bunch of people are confused and not clear is themselves as to what they want to make out. 


Such accusations are nothing but babble. It is all uncalled for criticism. This will increase the division among banking fraternity. Pensioners have their own problems, but they do not blame the working employees / officers. They squarely put the unions in the dock. If the pensioners were corrupt and negligent, then the question will legitimately hit to working people with regard to their being honest and diligent.


The Forum has given thoughtful feedback on the subject in its foreword dated 16 and 23 February 2021. Current public banks, in whatever conditions they may be, should not be entrusted to private hands. Doing so, it would be considered to hand over the deposits stored in such banks to private hands. A very big wrong message will go to every  home. The government should merge the remaining public banks with the larger banks. As far as raising funds from disinvestment is concerned, the government can raise money by disinvestment of big banks to the permissible level. There has already been equal opportunity for private sector banks to work diligently, but they have always been irresponsible regarding national responsibilities.


(J. N. Shukla)

National Convener

6.3.2021

9559748834

 15-16 मार्च, 2021 की हड़ताल 


   बैंकों के निजीकरण को लेकर चिंता कर्मचारियों/अधिकारियों के इर्दगिर्द सिमटी हुई है, जबकि इसे सामाजिक-आर्थिक-राजनीति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखनें की जरूरत है। स्वकेंद्रित लाभ-हानि से परे राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखते हुए, इस विषय पर विचार करने की जरूरत है। 


रोजगार की सुरक्षा या रोजगार के अवसर सतही तौर के मुद्दे हैं, क्योंंकि तथ्यों और आंकड़ों के आलोक में इनमें दम नहींं है। 


दमदार मुद्दा है, बैंकों में जमा जनधन, जो आम आदमींं की बहुमूल्य बचत है और जो एक तरह से राष्ट्रीय संपदा है, जिसका सुरक्षित रहना तथा जन सामान्य के विकास में प्रयुक्त होते रहने की जरूरत है। 


सरसरी तौर पर देखा जाए तो स्वामित्व का मुद्दा भी दमदार नहीं है। सरकारी स्वामित्व में ही फोन बैंकिंग का विभत्स तांडव हुआ, जिससे सार्वजनिक बैंकें लहूलुहान हैं और कैजुअल्टी से बचाने के लिए मोदी सरकार ने विगत पांच वर्षों में इन बैंको का तीन लाख करोड़ से ज्यादा का पूंजीकरण किया। 


ऐसे ही प्राइवेट बैंकें भी लूट की शिकार होती रही हैं, लेकिन उन्हें बचाने के लिए टैक्स पेयर का धन नहीं होता, अत: उन्हे किसी बैंक द्वारा अधिग्रहीत करवाया जाता है, ताकि स्टैकहोल्डरों का हित सुरक्षित हो सके।


इस दृष्टि से भी बैंकों का सार्वजनिक क्षेत्र में होना जरूरी है। जबसे सार्वजनिक बैंकों का प्रादुर्भाव हुआ, भारत में बैंक बंदी का शिलशिला समाप्त हुआ। असफल होते प्राईवेट बैंकों को सार्वजनिक बैंकों में विलयकर बैंकों से जुड़े जमाधारकों तथा कर्मचारियों का हित रक्षण हुआ। यदि सार्वजनिक बैंकें न होतीं तो असफल प्राइवेट बैंकों की त्रासदी के शिकार जमाधारक और ऐसी बैंकों में काम करनें वाले लोग होते।


सार्वजनिक बैंकों के पीछे सरकार खड़ी होती है, जिससे उनके स्थायित्व, पूंजी, विकास, लोकहित को लेकर बैंकों से जुड़े ग्राहक विश्वशनीय भाव में रहते हैं, लेकिन सार्वजनिक  बैंकिंग संसाधनों के राजनीतिक दुरूपयोग के खतरे की व्यापकता तथा उससे उत्पन्न खतरे की गहनता को लेकर आजतक कोई लक्ष्मण रेखा नहीं बनीं। बैंक साख का राजनीतिकरण सबसे बड़ी त्रासदी रही है, जिसके समाधान में नियामक तंत्र भी बौना रहा। 


वर्तमान सरकार ने बैंकों के परिचालन में हस्तक्षेप से परहेज बनाए हुए है, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं कि किसी और दल के सत्ता में आनें पर, पूर्व सरकारों के चलन की वापसी न हो। बड़ा सवाल उनसे है, जो सार्वजनिक बैंकों की पैरोकारी करते है, इसे नजरंदाज करते हुए कि सार्वजनिक बैंकों की जो आज दुर्दशा है, वह उनके सार्वजनिक होनें के कारण है। इसका क्या उत्तर है?


अब किसी को अर्थशास्त्र न आना, किसी को जयचंद के नाम से  विभूषित करना, मोदी भक्त कहना, बौद्धिक दरिद्रता कहना, नाचीज़ का सीता पर कटाक्ष का हवाला देना, अक्ल का अंधा कहना, हम समझते हैं, यह सब खिसियानी बिल्ली खंभा नोचने की कहावत का द्योतक है। बहरहाल, इसी बहाने लोग राम और कृष्ण काल को उद्घ्रित करने लगे हैं। 


यह आरोप कि जो लोग, अर्थात बैंक पेंशनर्स, बैंक की नौकरी पूरे भ्रष्टाचार और लापरवाही से पूरी करके अब पेंशन ले रहे हैं, वाकई बौद्धिक दीवालियापन की पराकाष्ठा है। ऐसी अवधारणा का मतलब कि सभी बैंक पेंशनर भ्रष्ट और लापरवाह थे, पर पेंशन पा रहे हैं? दूसरे शब्दों में जाहिर है, यह वर्तमान कार्मिकों के भ्रष्ट और लापरवाह होनें की पुष्टि भी करता है। यदि इसे सही मान लिया जाए, तो बैंकों का सार्वजनिक क्षेत्र में कतई रखने का औचित्य नहीं है। इसे बनाए रखने का मतलब, भ्रष्टाचार और लापरवाही को बढ़ावा देना होगा। इसके विपरीत प्राइवेट बैंकों में कर्मचारियों/अधिकारियों का भ्रष्टाचार या लापरवाही अक्षम्य अपराध है। ऐसे लोक कहना क्या चाहते हैं, कुछ साफ नहीं होता।


इस तरह के दोषारोपण प्रलाप के सिवा कुछ नहीं है। यह घटिया किश्म का छिद्रान्वेषण भर है। इससे विभाजन बढ़ेगा। पेंशनरों की अपनीं समस्याएं हैं, लेकिन वे कार्यरत कर्मचारियों/अधिकारियों को दोषी नहीं मानते, बल्कि यूनियनों को कटघरे में खड़ा करते हैं। अगर पेंशनर भ्रष्ट और लापरवाह थे, तो आजके कार्यरत लोगों में कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं, इन पर भी सवाल उठ सकते हैंं।


फोरम अपने 16 व 23 फरवरी, 2021 के अग्रलेख में इस विषय पर सोची समझी प्रतिक्रिया दे चुका है। वर्तमान सार्वजनिक बैंकों को, चाहे वे जिस भी स्थिति में हों, निजी हांथों में नहीं सौंपा जाना चाहिए। ऐसा करना, ऐसी बैंकों में संग्रहीत जमा को निजी हांथों में सौंपना माना जाएगा। एक बहुत बड़ा गलत संदेश घर घर जाएगा। सरकार को शेष सार्वजनिक बैंकों को बड़ी बैंकों में मिला देना चाहिए। जहां तक विनिवेश से धन जुटाने का प्रश्न है, सरकार बड़ी बैंकों का अनुमन्य स्तर तक विनिवेश कर धन जुटा सकती है। निजीक्षेत्र की बैंकों को बढ़चढ़ कर काम करनें का अवसर पहले से है, लेकिन वे राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों को लेकर हमेंशा गैरजिम्मेदार साबित होते रहे हैं। 


(जे.एन.शुक्ला)

नेशनल कंवेनर

6.3.2021

9559748834

फोरम आफ बैंक पेंशनर एक्टिविस्टस्

    Forum of Bank Pensioner Activists

                        PRAYAGRAJ

      न त्वहं कामये राज्यं  न स्वर्गं नापुनर्भवम्।

      कामये दुःखतप्तानां प्रणिनामार्तिनाशनम्॥

                हिमालयं समारभ्य, यायव हिन्दुसरोवरं।

              आतं देवनिर्मितं देशं, हिन्दुस्तानं प्रचक्षेत।।


(English version sent)


बैंकें , क्योंं सार्वजनिक स्वामित्व में बनीं रहें?



हम, भारत में निजी बैंकिंग के घटिया इतिहास के पन्नों को पलटने और उसके विवरणों पर चर्चा नहीं करनें जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, 2004-14 के दौरान ग्लोबल ट्रस्ट बैंक, साउथ गुजरात बैंक, सेंचुरियन बैंक, यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक, नैनीताल बैंक, गणेश बैंक, लॉर्ड कृष्णा बैंक, भारत ओवरसीज बैंक, सांगली बैंक, बैंक ऑफ़ राजस्थान, ING वैश्य बैंक का पतन हुआ। इन बैंकों के जमाकर्ताओं और कार्यरत कर्मचारियों को किसी न किसी सार्वजनिक बैंक में विलय करके बचाया गया।


1969 में सार्वजनिक बैंकों के प्रादुर्भाव के बाद, कई निजी बैंकें असफल हुई, जिन्हें  सार्वजनिक बैंकों में विलिन किया गया। 


उपरोक्त तथ्य को देखते हुए, भारत में अभी भी बड़ी संख्या में बैंकें निजी क्षेत्र में काम कर रही हैं, जिसमें पेमेंट बैंक भी शामिल हैं। क्या ऐसी कोई गारंटी है कि इस तरह की प्राइवेट बैंकें, अतीत की तरह भविष्य में ऐसे खतरे का सामना नहीं करेंगीं? महत्वपूर्ण प्रश्न है: यदि  भारत में कोई मजबूत पीएसबी नहीं रहेगी, तो भविष्य में असफल होती प्राइवेट बैंकों का उद्धार कौन करेगा? इस तरह से तो पूरी बैंकिंग खतरे के दायरे में आ जाएगी। इसलिए, मजबूत सार्वजनिक बैंकों की आवश्यकता है, ताकि वे निजी बैंकों की असफलता की स्थिति में उन्हें कंधा दे सकें।


एक और सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बैंकों में जमा धन का है, जो आम लोगों की एक मूल्यवान बचत है और जो एक प्रकार से राष्ट्रीय संपदा है, जिसका सुरक्षित रहना और आम लोगों के विकास में प्रयुक्त जारी रखना  जरूरी है।



नौकरी सुरक्षा या रोजगार के अवसर के दृष्टिकोण  से निजीकरण को देखने के बजाय, इसे बड़े सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह खतरे की व्यापकता को समझने में मदद करेगा, जो निजीकरण विरासत में देगा। राष्ट्रीय हित की रक्षा के लिए, इस मुद्दे पर कर्मचारियों और अधिकारियों के पारलौकिक हितों से परे विचार की आवश्यकता है। हम कह सकते हैं कि नौकरी की सुरक्षा या इसके अवसर सतही मुद्दे हैं, इन मुद्दों के बारे में तथ्यों और आंकड़ों के आलोक में इनका कोई वज़न नहीं है।


सरसरी दृष्टि से, यहां तक ​​कि सार्वजनिक स्वामित्व का मुद्दा भी मजबूत नहीं है। फोन बैंकिंग गंभीर रूप से विनाशकारी थी। यह सरकारी स्वामित्व के तहत हुआ, सार्वजनिक बैंकों का खून बहा।  पीएसबी को बचाने के लिए सरकार इन बैंकों की पीछे खड़ी रहती है। पिछले पांच वर्षों में इन बैंकों को तीन लाख करोड़ से अधिक का पूंजीकरण करना पड़ा है। यह न मजबूती है और न सफलता!


ऐसा नहीं है कि यह केवल निजी बैंक ही हैं, जो लूटपाट की शिकार होती हैं। बस फर्क इतना भर है कि सार्वजनिक बैंकों की लूट राजनीतिक संरक्षण में होती है, जो पवित्र है, जिसकी भरपाई करदाताओं के धन से सरकारें करतीं हैंं, जबकि निजी बैंको में यह प्रमोटरों द्वारा की जाती है, जघन्य अपराध है, जिसकी कीमत जमाधारक चुकाता है।  


लूट तो लूट है, दोनों हालात में जनता ही लुटती है। ऐसे में बैंकों को लेकर एक मजबूत आधारभूत ढ़ाचे की जरूरत है, जहां राजनीतिक संरक्षण में लूट और प्रमोटरों की लूट पर अंकुश लग सके। सार्वजनिक बैंकें पोलिटिसाइजेशन की शिकार हुईं है। इससे निजात पानें की बड़ी जरूरत है। सार्वजनिक बैंकों का स्वायत्त निकाय हो, स्वतंत्र आडिट हो और परिचालन में राजनीतिक हस्तक्षेप न हो। निजीकरण समस्या का कोई समाधान नहीं है, बल्कि यह नये किश्म की समस्याओं को जन्म देगा, जिसे हैंडल करना कठिन होगा।


(जे.एन.शुक्ला)

नेशनल कंवेनर

8.3.2021

9559748834

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