फोरम आफ बैंक पेंशनर एक्टिविस्टस्
Forum of Bank Pensioner Activists
PRAYAGRAJ
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्रणिनामार्तिनाशनम्॥
हिमालयं समारभ्य, यायव हिन्दुसरोवरं।
आतं देवनिर्मितं देशं, हिन्दुस्तानं प्रचक्षेत।।
To All Bank men:
11.11.2020 को 11वां समझौता और 8वां ज्वाइंट नोट पर हस्ताक्षर हुआ। महज 5/6 दिनों बाद 18 सूत्रीय मांगों का पत्र कर्मचारी यूनियनों नें आई.बी.ए. को भेजा। 10.12.2020 को आईबीए ने यूनियनों से औपचारिक बैठक आयोजित किया और 18 सूत्रीय मांगों पर अपना लिखित जवाब हस्तगत कराया। मुद्दों को लेकर उभय पक्षों में कोई विचार-विनमय हुआ, ऐसा कोई संकेत किसी तरफ से नहीं आया। बैठक के बजाय, ऐसा पत्राचार से भी हो सकता था।
अधिकारी यूनियनें चुप्पी साधे रखीं और प्रतीक्षारत रहीं, संभवतः यह देखने के लिए कि ऊंट किस करवट बैठता है। पर, ऊंट ने करवट लिया ही नहीं। सब्र टूटा, और उन्होंनें भी कोई पत्र लिखा होगा, जिस पर आईबीए ने उन्हें 4.1.2021 को बुलाया है। आईबीए के स्तर पर होनें वाली कर्मचारी और अधिकारी संघों की बैठकें अमूमन एक दिन आगे-पीछे का होतीं थीं, लेकिन इस बार इस पर कोई जोर नहीं दिखा। अधिकारी यूनियनों के साथ आईबीए की बैठक तो होगी, लेकिन उसके परिणाम को लेकर कोई उत्सुकता पालना गैरजरूरी होगा। इन्हें भी आईबीए अपने लिखित जवाब का कागज हस्तगत कराएगा, जैसा कर्मचारी यूनियनों को किया जा चुका है। हलो-हाय, चाय-काफी, फिर 2020 की समीक्षा और नये वर्ष की शुभकामनाएं देते-लेते, फिर कब मिलोगे- जब तुम कहोगे के ठहाके के साथ, लिफाफों का हस्तांतरण होगा।
यह महज बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों को दिखानें की कवायद के तौर पर हो रहा है कि 'अन्य मुद्दों' नाम की कोई चिड़िया अब भी डाल पर बैठी है। फेमिली पेंशन की सीलिंग हटने को फेमिली पेंशन रिवीजन प्रचारित किया जा रहा है। कहनें को यह सौदा कोई मामूली नहीं, बल्कि 20000 करोड़ रूपये का है। इससे केवल उन फेमिली पेंशनरों को थोड़ी बहुत राहत मिलेगी, जिनकी पेंशन सीलिंग के कारण 25% या 20% है। ऐसा उच्च अधिकारियों के मामले में ही होगा। शेष जो 30% पा रहे हैं, उनको कोई लाभ नहीं मिलने वाला है, लेकिन प्रचारित ऐसे हो रहा है जैसे सभी फेमिली पेंशनरों को राहत मिलने जा रही है।
जिससे सभी को राहत मिलने वाली है, वह पेंशन रिवीजन है, जिसकी चर्चा, मई, 2017 से 11.11.2020 के समझौते की तारीख तक हुई वार्ताओं में दफनाये रखी गई। आज भी मंशा बिल्कुल ठीक नहीं है। यहांं तक कि माननीय वित्तमंत्री का मिंट में छपा साक्षात्कार और आईबीए की वार्षिक सभा में उनका भाषण, दोनों, यूनियनों को राश नहीं आया, बल्कि उनकी छाती पर मूंग दल गया। इन यूनियनों को छोड़ो, रिटायरी यूनियनें भी मातम मनाती दिखी।
आपरेटिंग यूनियनों को खुश करने के लिए, रिटायरीज यूनियनें ज्यादा मुंह लटकाये फिरती दिख रही हैं। अजीब बिडंबना है। वित्तमंत्री पूर्व बैंकरों की दशा पर अपनी गहरी चिंताएं व्यक्त करते, बैंकर्स को उलाहना देते दिखीं कि रक्षा विभाग को देखो, जहां पूर्व सैनिकों का कितना खयाल रखा जाता है। लड़ कर वन रैंक वन पेंशन हासिल किया। वित्तमंत्री का यह जोर का तमाचा तो बैंकर्स के गाल पर था, पर गाल लाल यूनियन नेताओं का हो गया।
किसी यूनियन ने माननीय वित्तमंत्री का आभार नहीं जताया। बैंकिंग ट्रेड यूनियन आंदोलन के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ, जब कोई वित्तमंत्री किसी कर्मचारी समूह की कठिनाइयों को लेकर खुद मैदान में उतरा हो। बेशक यह गौरव की बात है कि वर्तमान वित्तमंत्री ने पूर्व बैंकरों के साथ हो रहे अन्याय, उत्पीड़न और हकतल्फी के खिलाफ बैंकर्स को झझकोरा और कहा कि इनके मुद्दों को गंभीरता से लें एवं समाधान करें।
इरादे नेक हों तो असफताओं को लेकर मलाल नहीं होता। जंग जीती या हारी, यह शहीद नहीं देख पाता, लेकिन वह बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हुआ, यह बखूबी वह जानता है। पेंशन रिवीजन का प्रयास करते हजारों लोगों नें अपने प्राण गवाए। पेंशन रीवीजन हुई या नहीं हुई, लड़ते हुए परलोक सिधार गये लोगों को क्या पता! हम ऐसे लोगों को श्रद्धांजलि के शिवा दे क्या सकते हैं!
(जे.एन.शुक्ला)
नेशनल कंवेनर
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न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्रणिनामार्तिनाशनम्॥
हिमालयं समारभ्य, यायव हिन्दुसरोवरं।
आतं देवनिर्मितं देशं, हिन्दुस्तानं प्रचक्षेत।।
"मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग,
लेकिन आग जलनी चाहिए।"
■
युश्यंत की ये पंक्तियां जब जिंदगी
का मकसद बन जाएं, तो चिंगारी
भी शोला बन कर धधक उठती है।
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■जब बैंक पेंशनरों की दुश्वारियों,
तकलीफों और उनकी अनदेखी
से मेरा सीना फटने लगा,
तब ज्यादा से ज्यादा सच्चाई
और समग्रता के साथ
ज्यादा से ज्यादा लोगों तक
पहुचने के लिए लिखने की
दिशा बदली।
■पता नहीं, हम कहां तक
और कितनी दूर तक पहुंचे!
और, कब तक और चलना है।
■जख्म हैंं बेसुमार और दर्द भी है
बेपनाह, पर जालिम लोग हैंं कि
जख्म-दर-जख्म दिये जा रहे हैं
और वो हरा का हरा है।
बैंक पेंशनर्स को लेकर यूनियनों और आई.बी.ए. के बीच चली नूराकुश्ती का नजारा सब ने देखा। यह सिलसिला बदस्तूर आज भी चल रहा है। जंग ईमानदारी से लड़ी जाए, तो हार कर भी अफसोस नहीं होता, हौसले नहीं टूटते। लेकिन, जंग लड़नें का दिखावा हो और दुरभि संधि के चलते दुश्मन के सामनें हथियार डालना पड़े, हार स्वीकार करना पड़े, तो आने वाली नश्लें इसे हिकारत की नजर से देखेंगीं।
उदाहरण: रिजर्व बैंक का पेंशन रिवीजन प्रकरण। 2002 मे हुआ रिवीजन 2008 में पलट दिया गया। लोगों ने जो पाया था, वह वापस छीन लिया गया। फिर संघर्ष का लंबा दौर। लंबी कानूनी लड़ाई में एकजुटता दिखी और अंततः केवल कार्यवाई के दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति से सफलता के दरवाजे खुल गये और आरबीआई में मार्च, 2019 से 31.10.2012 तक के पेंशनरों की पेंशन रिवाइज हो गई। काबिले गौर है, पेंशनरों ने हौसला बनाए रखा और वहां की यूनियनों ने पेंशनरों का साथ नहीं छोड़ा। यह संघर्ष के पराक्रम का नतीजा है, परिक्रमा का नहीं! अन्य बैंकों में क्या हो रहा है? यहां पराक्रम नहीं परिक्रमा का युग चल रहा है। परिक्रमा में पूरी बैंकिंग फ्रैटर्निटी को लगा दिया गया है। यहां पेंशन नोचो अभियान 7वें समझौते से शुरू हुआ है और रुकनें का नाम नहीं ले रहा है।
1.4.1998 से 30.4.2005 के दौरान, 1616/1684 का जिन्हें घाव लगा, उन्हें ज्यों का त्यों लहूलुहान छोड़ दिया गया। लोग उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक न्याय के लिए लड़े और न्याय हासिल भी हुआ, लेकिन देखनें वाली बात यह है कि इस जंग को लड़ने वाले, यूनियन विरोधी मान लिए गए, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को बैंकों ने अड़चनों का शिकार बनाया, क्रियान्वयन में बाधाएं डालीं, लेकिन यूनियनों ने पलट कर देखा तक नहीं। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही की खुद रिटायरी यूनियनें क्रियान्वयन को लेकर बार-बार अपना स्टैंड बदलती रहींं, मैनेजमेंट का सपोर्ट करती दिखीं। 100% डी.ए. केस यूनियन ने सर्वोच्च न्यायालय में हरवा लिया। दुनिया में संभवतः अपनों की दगाबाजी की ऐसी कोई और मिसाल नहीं मिलेगी जहां खुद मुकदमा करने वाला ही अपने मुकदमें से दगा करे और केस हार के लिए छोड़ दे। गलती भेंडों की है, जो ऐसे भेंड़ियो के भूख का आइटम बन पीछे-पीछे चलतीं हैं।
7वें समझौते के उपरोक्त तिकड़म को 25.5.2015 को अचानक बिना किसी पूर्व आहट के फिर दोहराया गया। मूल वेतन का एक हिस्सा काट कर 1.11.2012 से स्पेशल एलावंस बनाया गया। इस स्पेशल एलावंस को पेंशन पात्रता से बाहर किया गया। पेंशन में ऐसे घाव का कोई औचित्य नहीं था, महज यह पेंशन का एक लोथड़ा और नोचनें का हथकंडा था। लाख से ज्यादा लोगों को इसका शिकार होना पड़ा।
यूनियनों का नया मांग पत्र आया, लोगों का गुस्सा कम करनें व ध्यान भटकाने के लिए, स्पेशल एलावंस को मूल वेतन में मिलानें की मांग रखी गई। अंतिम क्षणों में, यह अंतिम मुद्दा शेष था, जिसे मूल वेतन में मिलाने के बजाय इसे बढ़ाने को लेकर अधिकारी-कर्मचारी यूनियनों ने मिल कर यू-टर्न मारा और फिर वे वर्चस्व की जंग में उतर गईंं। स्पेशल एलावंस को मूल वेतन में मिलाने की कौन कहे, उसे दोगुना कर दिया गया, अर्थात जो पेंशन घटतौलिया 1.11.2012 से 4/5% थी, वह 1.11.2017 से 8.20% हो गई। पेंशनरों का एक और नया क्लास बन गया है।
इस समय पेंशनर्स की तीन श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी में पेंशन रिगुलेशंस, 1995 के लोग हैं। दूसरी श्रेणीं में दूसरे आप्सन वाले लोग हैं, जो 2010 में पैदा होते हैं और अब तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं, जो पेंशन-कटवा स्पेशल एलावंस से जुड़े हैं। वोट-कटवा सभी समझते हैं, लेकिन कहनें को स्पेशल एलावंस है, पर है वह पेंशन-कटवा। स्पेशल एलावंस का मतलब "व्यूटीफुल लेडी विदाउट ब्रेस्ट"। करिश्मा कुदरत का बेवजह बदनाम है, असलियत में, करिश्मा तो इन दलालों का देखनें लायक है।
(जे.एन.शुक्ला)
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फोरम आफ बैंक पेंशनर एक्टिविस्टस्
Forum of Bank Pensioner Activists
PRAYAGRAJ
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्रणिनामार्तिनाशनम्॥
To All Bank men:
MAHA-GHANTAL'S
NEW YEAR GREETINGS..
Have you ever seen "Ghanta" in New Year Greetings? It's new invention of 'Maha-Ghantal'. Now he tries to symbolize himself as 'messiah' of Workers-Peasants, the most confusing theme being used to befool millions in India. However, no problem, all should excel, be one from any section of society. Progress is every one's right. But, supporting farmers doesn't mean supporting peasants. Peasants are exploited by farmers. There is difference among farmers, peasants & workers. Hope, it's very common feature that Maha-Ghantal do understand.
Charity should begin at home, is an old proverb. There are roughly 1.5 lakh temporary workers in Banking, languishing for regularization. What about them Maha-Ghantal?
Are they safe, secure, given scale wages & service conditions-mean working hours, leave, LFC, medical help, annual increment, progression, gratuity, bonus, NPS, PF etc.? More than 50% are above 10 years older in job.
All limits of L a f a z i, (gassiness) have been crossed. Maha-Ghantal too often expresses his concerns & worries about job security of bankmen, who are safe and have regulated service conditions, thus no such threats.
Could any body know, where is job insecurity to a regular employee and officer in Banking? But, it's always pretended to be an issue, to instil fear in the mind of banking workforce. Other side, to show that the job security is because of him, he does drama at frequent intervals. Under this garb, he evades from real issues confronting with bankmen.
Today, greatest issue is temporary, casual and contract workers. They are working on regular basis on permanent vacancies. They have no hours of work. From opening of Bank gate to closure, they are in duty. Sundays, Holidays hardly matter for them. Even in darkest days of private banking regime, in emergency or no where in history we find such reference of contract labour exploitation at such scale. If any, please enlighten us to correct our impression.
Ghanta Master talks of employment, but signs an agreement that kills job opportunities.
Now every employee and officer is entitled to sell his or her earned leave 5 to 7 days annually. Take it as average 6 days and multiply by about 8 lakh number of workforce to reach at number of days that employees & officers shall work, instead be on leave.
Such working by same workforce kills new employment opportunities and at other side it strains the existing workforce. His rest and recuperation time is reduced. Let us see, this was the demand of Bank Management, so there is no reason to believe that it has any ingredient of favour or welfare measure.
Let us come to topic of contract workers. Even separate Unions in the name of contract workers have been formed by professionals traders. These exploited contract workers are further exploited by trained professionals. Who are these trained professionals? They are from main streme Trade Unions. So far no breakthrough. Ghanta brand Unions have no interest in this new class of employees in Banking, but see how they are shedding crocodile tears towards workers-peasants.
Unions are present at every point, but for them contract workers are not an issue. From top to bottom and in none of the Bank's, anyone is seen worried or doing anything to extend justice to these workers.
Management don't want to increase regular subordinate staff. Their strength is diminishing and contract workers strength is increasing. We don't find any reference of any agitating Unions on this issue.
We enquired from few ALCs/ DLCs as to whether they have such disputes in conciliations. Reply was no.
It's shocking state of affair in Banking where we have strongest Unions! Strongest Unions are replaced by Maha-Ghantals! Yes, banking may have now big Traders, Brokers, Sycophants disguised as Trade Union Leaders engaged in cross selling of rights & interests of officers & employees and extracting money by soever means, subscriptions or levies.
(J. N. Shukla)
National Convener
31.12.2020
9559748834
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