Saturday, November 2, 2019

भारतीय बैंक संघ की भूमिका से बैंकिंग उद्योग में गहराता संकट !

श्री नरेंद्र मोदी जी,
माननीय प्रधानमंत्री,
भारत सरकार,
नई दिल्ली

बहन निर्मला सीतारमण,
माननीय वित्त मंत्री,
भारत सरकार,
नई दिल्ली

आदरणीय महोदय,

   भारतीय बैंक संघ की भूमिका से
    बैंकिंग उद्योग में गहराता संकट !

    इसे प्रतिबंधित किया जाये तथा
      इसकी जगह कोई प्राधिकरण
    बना समस्याओं का निराकरण हो!!


हम आपका ध्यान आईबीए के पत्र दिनांक 30.9.2019 की तरफ आकृष्ट करना चाहते हैं, जो उन्होंने अपने सदस्य बैंकों को अपनी विधिक हैसियत को लेकर लिखा है. सोसल मीडिया में आईबीए के इतने वर्षों से काम करने की विधिक हैसियत को लेकर सवाल उठ रहे हैं. लोगों ने पंजीकरण का सवाल उठाया, जिसके न होने का मतलब गैर कानूनी संस्था है. लेकिन वह बैंकों के लिए सुपर-काप की तरह काम करता रहा है. मुख्य सवाल यह है, कैसे और क्यों बैंकें या सरकार ने तमाम नीतिगत निर्णयों, समझौतों, सहमति ज्ञापनों के लिए अपनी तरफ से इसे नियुक्त किया है?

आईबीए सैकड़ों करोड़ सालाना चंदा उंगाहता है, जिसे वह स्थितियों को तोड़ने-मरोड़ने मे बेशुमार ढंग से खर्च करता है. एक वाक्य में इसे संविधानेतर- गैर -कानूनी निकाय कहा जा सकता है, जो गैर-जवाबदेह व्यवसाय में संलिप्त है. उम्मीद है, आप  इससे सहमत होंगे!

अब हम आईबीए के संस्थागत संरचना को लेकर कुछ सवाल उठाना चाहेंगे, जो निम्नवत हैं:

1. क्या बैंकों ने इसे एक सेल कंपनी बना रखा है और वित्त मंत्रालय ने इसे मान्यता दे रखी है या इसका कोई विधिक स्वरूप है, देश के किसी कानून के तहत इसका गठन हुआ है?

2. क्या यह संवैधानिक है, किसी अधिनियम के तहत है और मान्य है या महज बैंकरों का क्लब मात्र है, स्वेक्षिक और गैर-जवाबदेह है?


3. क्या यह कोई कानूनी संस्था है, जवाबदेह है या फिर देश के समस्त कानूनों से उन्मुक्त है?

4. क्या इस पर आरटीआई कानून लागू है?

5. यह औद्योगिक विवाद अधिनियम के अंतर्गत समझौते, अनुबंध करता रहा है,  बैंकों के नीतिगत मामलों और निर्णयों में हस्तक्षेप एवं सलाह देता रहा है, लेकिन ऐसा वह किस शक्ति और अधिकार से करता रहा है, यह स्पस्ट नहीं है? क्या इसे वित्तीय सेवा विभाग ने शक्ति दी है और यदि दी है, तो वह देश के किस विधि-विधान या प्रोसीजर के तहत दिया गया है?

6. यह सार्वजनिक और निजी बैंकों से फीस आदि के रूप मे करोड़ों उंगाहता रहा है. सार्वजनिक बैंकें सरकारी संस्थान हैं. अगर आईबीए एक निजी और स्वेच्छिक एशोसिएसन है, तो सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकें इस तरह से इसे चन्दा कैसे दे सकती हैं?

7.  वित्त मंत्रालय ने अपने पत्र सं. एफ.24/7/92-आईआर(वालूम-꫰꫰) दिनांक 24.2.2012 के जरिए, उप अधिशासी, आईबीए को अधिकृत किया था कि कार्यरत एवं रिटायरीज को चिकित्सा बीमा की सुविधा वेलफेयर फंड से उपलब्ध करायें. उपरोक्त पञ पर 3 वर्ष 7 महीने के बाद, आईबीए ने बैंकों को अपने पत्र सं. एचआर-आई/2015-16/ एक्सबीपीएस/जे/ दिनांक 1.10.2015 के जरिए निर्देश जारी किया. सरकार के निर्देश कि रिटायरीज का प्रीमियम वेलफेयर फंड से दिया जाये, के बावजूद आईबीए के चेयरमैन इस जिद पर कायम रहे कि बीमा का प्रीमियम रिटायरीज खुद भरें, जबकि वेलफेयर फंड में पर्याप्त धन था. परिणामस्वरूप केवल 30% रिटायरीज ही बीमा करा सके हैं. यह वित्तीय सेवा विभाग के आदेश की अवहेलना और अवमानना था. क्या आईबीए को ऐसी शक्ति है कि वह सरकार के निर्देशों को दरकिनार कर अपनी मनमानी करे?

8. इसके बाद, आईबीए मुखिया ने बीमा कं. को अधिकारी व कर्मचारी रिटायरीज के प्रीमियम को विगत 4 वर्षों में क्रमश: 1259% व 584%  एकतरफा वृद्धि करने दिया, जो बीमा व्यवसाय में एक अनहोनी घटना है, वह भी सरकारी बीमा कं. यूआईआईसी में.

9. एच. आर. विषयों की गैर-जिम्मेदाराना पहल के चलते बैंकों/सरकार/आईबीए के खिलाफ पेंशनरोंं/यूनियनों ने अनेक मुकदमें न्यायालयों में लगा रखा है, जिस पर करोड़ों खर्च किया जा रहा है. वित्तीय सेवा विभाग को माननीय सर्वोच्च न्यायालय के कतिपय निर्णय मालूम है, चाहे वह 1616/1684 पे/पेंशन का मामला हो या वह जिसमें स्टेट बैंक के चेयरमैन ने बिना शर्त माफी मांगी है. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है कि एक संस्थान में क्षतिपूर्ति के दो मानदंड नहीं हो सकते, लेकिन बैंकों में इसकी घोर अवमानना जारी है. उदाहरण के लिए सभी रिटायरीज को एक दर पर डी ए नहीं दिया जाता. यह 100% डी ए प्रकरण के नाम से जाना जाता है, जिसको लेकर क्यूरेटिव पेटिशन सर्वोच्च न्यायालय में लंवित है. कार्यरत कर्मियों का डी.ए. तिमाही औसत पर घटता-बढ़ता है, जबकि रिटायरीज का 6 माह में होता है. 10वें समझौते में मूल वेतन वृद्धि का एक हिस्सा विशेष पे बनाकर उसे पेंशन के लिए अगण्य बना दिया, जिसे अदालतें नियम विरूद्ध घोषित कर रही हैं. पेंशन के दूसरे विकल्प के समझौते में, पेंशन रिगुलेशन के सिद्धान्तों को आप्टीज के हितों के प्रतिकूल बदल दिया गया. रिकार्ड बताता है, ऐसे अनेक गलत निर्णय हुए है, जिनको लेकर अशांति, आन्दोलन और कोर्ट केसेज चल रहे हैं. वित्तीय सेवा विभाग को यह सब मालूम है.

10. आईबीए ने 30.9.2019 को अपने सदस्य बैंकों को एक परिपत्र जारी कर अपनी कानूनी हैसियत खुद बताया है. अपने परिपत्र में आईबीए खुद मानता है कि वह एक स्वेच्छिक संगठन है. वह न सरकारी है और न सरकारी विभाग, न नियामक है. वह कहता है कि बैंकों पर उसका कोई अधिकार नहीं है, वह कोई निर्देश जारी नहीं करता और वह रिट के बाहर है. वह मुम्बई हाई कोर्ट के रिट पेटिशन 2786/2005 व 2388/2006 ( किशोर एस बोट वनाम आईबीए) का उल्लेख करते अपनी औपचारिक और अनौपचारिक जिम्मेदारियों और जवाबदेही से पल्ला झाड़ता  रहा है. हम आश्चर्यचकित हैं, यह सब हो रहा है और जैसे कुछ हुआ ही नहीं है!. सरकार की तरफ से यह अपेक्षित था कि वह  आईबीए को बंद/प्रतिबंधित करने का कदम उठाती, सार्वजनिक बैंकों के कार्यपालक हटने को  और कोई चंदा न देने को कहती. इतना ही नहीं, सरकार को आईबीए की परिसंपत्तियों का अधिग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उनका श्रृजन बैंकों के धन से हुआ है. आईबीए कहता है कि वह कुछ नहीं है,  तो सरकार उसे पैगंबर बनाने और माल्यार्पण करने पर क्यों आमादा है?.

11. आज बैंकिंग आईबीए विरूद्ध वातावरण में उबल रही है, क्योंकि वह बैंकों के एच. आर. मुद्दों से खेलता रहा है. उदाहरण के तौर पर, सरकार ने जनवरी 2016 में, ठीक 22 महीने समय पूर्व,  अगले वेतन समझौते की बात शुरू करने को कहा था, ताकि नया समझौता 1.11.2017 तक पूर्ण हो जाये. उसने क्यों शुरू नही किया, उसकी मंशा पर बड़ा सवाल है. विगत 29 महीनों में, अब तक 30 से ज्यादा बैठकों में आईबीए केवल स्थिति खराब कर रहा है, आग में घी डाल रहा है. आज जब वेतन  वृद्धि का 12% का प्रस्ताव आया है, तो 2% का प्रस्ताव क्या मजाक था? भारत सरकार की साख को दांव पर लगा कर इस तरह से घटिया सौदेबाजी करने का तरीका कहां तक ठीक था, सरकार इसका आंंकलन करे. ऐसी गतिविधियों/ हरकतों ने आईबीए को गैरजिम्मेदारा, अविश्वसनीय, सिरफिरा, निरंकुश और तानाशाह बना दिया है. इसे सरकार की साख और गरिमा का लेशमात्र परवाह इसे नहीं है.

12. सोसल मीडिया के आईने पर नजर डालिए तो बैंकिंग समुदाय का आईबीए विरुद्ध गुस्सा, कुढ़न और रोष दिखेगा. इस गुस्से से सरकार अछूती नहीं है. यह दर्शाता है कि बैंककर्मी सबसे ज्यादा दुखी समुदाय है. सोसल मीडिया विस्तार से  पेंशनरों की अमानवीय कठिनाइयों और कठिन नारकीय जीवन की तश्वीर पेश करता है, जो पेंशन जब से लागू हुई है, जनवरी-1986, उसका रिवीजन न होने के कारण है. क्या बैंकों में ऐसी स्थिति की उम्मीद की  जा सकती है कि जहां द्विपक्षीय प्रणाली पांच दशकों से है और पेंशन रिगुलेशन के बाद 1998, 2002, 2007, 2012 में वेतन समझौते हुये हों और 2017 की बात चल रही हो, लेकिन पेंशन रिवीजन न हो और सरकार के निर्देशों के बाद भी वेलफेयर फंड का एक पैसा रिटायरीज पर खर्च न हो रहा हो? सरकार पर लोगों का गुस्सा जायज है, क्योंकि सरकार की सभी नीतियों को बैंककर्मी पूरी लगन और निष्ठा से लागू करते हैं. प्रधानमंत्री स्वयं सराहना कर चुके हैं.

इसलिए, हम आप से गुजारिश कर रहे हैं, कृपया बैंकिंग परिदृश्य, सार्वजनिक बैंकों की भूमिका, आईबीए कार्यपालकों की कार्यप्रणाली आदि पर गौर करें, जो पूर्णत: कर्मचारी/अधिकारी विरोधी है. बैंक कर्मचारी या रिटायरी को लगता है कि बैंकें सरकारी है, तो आईबीए सरकार की अनुमति के बिना ऐसा वर्ताव कैसे कर सकता है?

सरकार से हमारा आग्रह है कि आईबीए का सरकार अधिग्रहण कर उसे एक कानूनी निकाय बनाये.  आईबीए ने अपना गैरकानूनी वजूद खुद स्वीकार किया है, तो सरकार क्यों किसी गैर कानूनी निकाय से वास्ता रखे? अच्छा होगा, यदि सरकार रेल, डिफेंस आदि की तरह बैंकिंग को वेतन आयोग जैसे किसी नियामक तंत्र के अधीन लाकर उचित वेतन एवं सेवा शर्तों का निर्धारण करे. बैंकर्स को, उनके परिचालन जोखिम और जिम्मेदारियों के सापेक्ष बेहतर डील पाने का हक है, जो नहीं मिल पा रहा है. सरकार बाक्स के बाहर आकर सोचें. बैंके सरकारी क्षेत्र में हैं और राष्ट्र निर्माण का काम कर रही हैं. वेतन में अब इतना अंतर हो चुका है कि उसे समझौते से भरा नहीं जा सकता. द्विपक्षीय प्रणाली अब गैरकारगर हो चुकी है, बैक फायर कर रही है. किसी तीसरे फोरम से सरकार को बेहतर संभावनाओं की खोज करनी चाहिए. देय क्षमता के आधार पर वेतन, पेंशन, सेवा शर्तों का निर्धारण सर्वथा गलत और गैर-प्रासंगिक है.

हम पूरी विनम्रता से उम्मीद रखते हैं कि सरकार उपरोक्त सभी विषयों को गंभीरता से लेते हुए, इस दयनीय दशा के निवारण के लिए निर्णय लेगी, क्योंकि जो दशा है और जो चल रहा है वह बैंकों तथा उसके कामगारों के लिए कत्तई ठीक नहीं है. सरकार की छबि, नेकनीयती और मंशा पर सवाल खड़ा करती है, जो बेवजह है और जिससे बचा जा सकता है.

सादर अभिवादन,


(जे.एन.शुक्ला)
राष्ट्रीय कन्वेनर
फोरम आफ बैंक पेंशनर एक्टिविस्ट्स
प्रयागराज, भारत

02.11.2019


न गर्व और न पूर्वाग्रह,
सिर्फ आग्रह
NEITHER PRIDE
NOR
PREDILECTIONS,
ONLY  APPEAL

1 comment:

  1. THIS ISSUE Would have been raised much earlier.
    Anyway BETTER LATE THAN NEVER.

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