As the Narendra Modi Government prepares the ground for reforms in public sector banks, with a blue print prepared by a group of senior bankers, finance ministry and RBI officials and a few experts, staffers of these banks led by their unions have threatened to derail any such plan unless they are also consulted before the proposed restructuring process kicks off.
Even as the chiefs of over two dozen public sector banks, senior finance ministry officials, the RBI Governor and other senior regulators and experts brainstormed over the weekend at a retreat on the way forward, unions representing both officers and other staffers in these banks were sore at being ignored in the consultation process.
Harvinder Singh general secretary of the All India Bank Officers Confederation which claims to represent 2.80 lakh officers of public sector banks, rural banks, co-operative and private banks said that staffers should be consulted before any decision is taken. “We are the public faces of the bank and as such are the major stake holders of banks. In case they try to push reforms without discussing with us we will oppose them,” he said.
The scenario is reminiscent of what happened during the first term of the UPA Government, when there was an attempt at consolidation in the banking industry. In fact, a merger between two state banks was discussed and was almost close to being cleared before the government decided not to pursue it in the face of political resistance. This time too, a similar attempt could face hurdles, bank employees have indicated.
Already, bank employees have announced a series of strikes starting January 7 to highlight their issues with the government especially decent wages. Singh alleged that the government was trying to push for massive privatisation in the name of reforms while going soft on wilful defaulters.
Kamlesh Chaturvedi Writes on Facebook
कल ५ जनवरी को मुख्य श्रमायुक्त के समक्ष आईबीए और यूएफबीयू के प्रतिनिधि समाधान कार्यवाही में भाग लेंगे. कई लोग ऐसी कार्यवाही को लेकर अत्यधिक उत्सुक होते हैं.उनकी जानकारी के लिए बता दें कि औद्योगिक विवाद अधिनियम १९४७ के प्रावधानों के तहत जब कभी जनउपयोगी संस्थानों में हड़ताल किये जाने की सूचना प्राप्त होती है तब मुख्य श्रमायुक्त का यह दायित्व है कि वह ऐसी कार्यवाही करे. इस कार्यवाही के दौरान मुख्य श्रमायुक्त की भूमिका एक मध्यस्थ की होती है, उसका प्रयास होता है कि नियोक्ता और श्...रमिक संघों के बीच तनाव को ख़त्म करके उन्हें आपसी बातचीत के जरिये समाधान निकालने को प्रेरित करे और जनउपयोगी संस्थान में हड़ताल की सम्भावना को ख़त्म करे.
उपमुख्य श्रमायुक्त के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है कि वो खुद कोई फैसला ले या किसी भी पक्ष को अपनी बात मानने के लिए मजबूर कर सके.अतः ऐसी कार्यवाही आज मात्र औपचारिकता बन कर रह गयी हैं. इस कार्यवाही के दौरान दोनों पक्षों के बीच विवाद से सम्बंधित दस्तावेज़ों का आदान प्रदान होता है, दोनों पक्ष अपने अपने तर्क रखते हैं जो रिकॉर्ड किये जाते हैं, मुख्य श्रमायुक्त धारा २२ के अंतर्गत यूनियन को हड़ताल पर और नियोक्ता को धारा ३३ के अंतर्गत सेवा शर्तों में किसी भी प्रकार के परिवर्तन से प्रतिबंधित कर देते हैं. अब क्यूंकि यह केवल सलाह है अतः इसको मानना या न मानना पक्षकारों पर निर्भर है. अब क्यूंकि नियोक्ता यूनियन की मांग नहीं मानता इसलिए यूनियन भी हड़ताल करने पर अड़ी रहती है जिसका नतीजा यह होता है कि धारा २२ के अंतर्गत लगे प्रतिबन्ध के चलते हड़ताल गैर कानूनी मानी जाती है जिसकी परिणिति हड़ताल के दिन के वेतन की कटौती के रूप में होती है.
उपमुख्य श्रमायुक्त के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है कि वो खुद कोई फैसला ले या किसी भी पक्ष को अपनी बात मानने के लिए मजबूर कर सके.अतः ऐसी कार्यवाही आज मात्र औपचारिकता बन कर रह गयी हैं. इस कार्यवाही के दौरान दोनों पक्षों के बीच विवाद से सम्बंधित दस्तावेज़ों का आदान प्रदान होता है, दोनों पक्ष अपने अपने तर्क रखते हैं जो रिकॉर्ड किये जाते हैं, मुख्य श्रमायुक्त धारा २२ के अंतर्गत यूनियन को हड़ताल पर और नियोक्ता को धारा ३३ के अंतर्गत सेवा शर्तों में किसी भी प्रकार के परिवर्तन से प्रतिबंधित कर देते हैं. अब क्यूंकि यह केवल सलाह है अतः इसको मानना या न मानना पक्षकारों पर निर्भर है. अब क्यूंकि नियोक्ता यूनियन की मांग नहीं मानता इसलिए यूनियन भी हड़ताल करने पर अड़ी रहती है जिसका नतीजा यह होता है कि धारा २२ के अंतर्गत लगे प्रतिबन्ध के चलते हड़ताल गैर कानूनी मानी जाती है जिसकी परिणिति हड़ताल के दिन के वेतन की कटौती के रूप में होती है.
तो कल क्या होगा यह इस बात पर निर्भर है कि आईबीए और यूएफबीयू के अंदर क्या क्या पका है. सूत्र बताते हैं कि यूएफबीयू के भीतर प्रभावशाली गुट की आईबीए के साथ गुप्त सहमति बन चुकी है जिसका खुलासा भी इस ग्रुप ने यूएफबीयू की बैठक में करके सहमति बनाने के प्रयास किये लेकिन आपसी सहमति नहीं बन पायी. प्रतिशत वृद्धि को लेकर यूएफबीयू के भीतर मतभेद उभर आये हैं. पिछली बैठक में इन मतभेदों पर किसी तरह पर्दा डाल दिया गया.सूत्र तो यह भी बता रहे की कर्मकारों की बड़ी यूनियनें एआईबीईए, एनसीबीई, बेफी जहाँ एक तरफ हैं और आईबीए के 11% बढ़ोत्तरी के प्रस्ताव को कुछ सुधार के साथ मान लेने और शीघ्र वेतन समझौता करने के पक्ष में हैं वहीँ अधिकारियों के समस्त संघठन, इन्बेफ और एनओबीडब्लु अधिक वेतन वृद्धि के लिए संघर्ष करने के पक्ष में.
अब ये देखना महत्वपूर्ण है कि यूएफबीयू की पिछली बैठक के बाद से आईबीए से अंदरखाने की सहमति बनाने में माहिर लोगों को बाँकी घटकों में से कितनों को अपने पक्ष में लाने में सफलता मिली है अगर ये पक्ष असफल रहता है तो ७ को तो हड़ताल होगी ही २१ से २४ तक भी हड़ताल की सम्भावना बनी रहेगी. पूरे घटनाक्रम में ऐबक की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्यूंकि संख्याबल के आधार पर न केवल यह सबसे बड़ा संघठन है बल्कि औरों की तुलना में ज्यादा प्रजातांत्रिक भी. अगर यूएफबीयू डटी रही तो जैसे उसे अभी बाँकी संघटनों का समर्थन मिल रहा है, आगे भी मिलेगा और आर पार के संघर्ष की सम्भावना बनेगी लेकिन अगर ऐबक ने भी बीच का रास्ता निकल लिया तो फिर समझौता जल्दी होगा और बैंक कर्मियों के मान, सम्मान और स्वाभिमान को ताक पर रख कर होगा.
अब ये देखना महत्वपूर्ण है कि यूएफबीयू की पिछली बैठक के बाद से आईबीए से अंदरखाने की सहमति बनाने में माहिर लोगों को बाँकी घटकों में से कितनों को अपने पक्ष में लाने में सफलता मिली है अगर ये पक्ष असफल रहता है तो ७ को तो हड़ताल होगी ही २१ से २४ तक भी हड़ताल की सम्भावना बनी रहेगी. पूरे घटनाक्रम में ऐबक की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्यूंकि संख्याबल के आधार पर न केवल यह सबसे बड़ा संघठन है बल्कि औरों की तुलना में ज्यादा प्रजातांत्रिक भी. अगर यूएफबीयू डटी रही तो जैसे उसे अभी बाँकी संघटनों का समर्थन मिल रहा है, आगे भी मिलेगा और आर पार के संघर्ष की सम्भावना बनेगी लेकिन अगर ऐबक ने भी बीच का रास्ता निकल लिया तो फिर समझौता जल्दी होगा और बैंक कर्मियों के मान, सम्मान और स्वाभिमान को ताक पर रख कर होगा.
PSU bank boards will take call on consolidation, not government’
Pune, Jan 3: As banks seek to join the top global league in terms of size, the government today assured them it will not force any merger among them and it will be up to the banks themselves to take a call on any consolidation. The government will only “sensitise” the lenders about the possibility of a merger and if their boards decide to engage into any consolidation deals they can approach the government for necessary approvals, Financial Services Secretary Hasmukh Adhia said.
“The banks were of the view that when it comes to consolidation, the bank boards will themselves decide whether it is good for us to have any consolidation. This is the view of the bankers which the government respects, we would not like to mandate them saying do this or do that,” Adhia told reporters here at the end of a two-day bankers’ retreat. He said Prime Minister Narendra Modi has promised that the government will not to interfere with the running of a banks and wondered how the government can force down a consolidation when it has clearly spelt out its intent.
He said the government will only “sensitise” the lenders about the possibility of a merger and attempts like the retreat is one of the ways of driving the process. “If two banks’ boards decide to come together, they can get into a conversation around it and they can request the government to approve it,” Adhia said. Adhia said in his address that Modi has asked the bankers present, most of whom were PSBs, to create an entity which is among the ten large banks in the world.
At present, the country’s largest lender, State Bank of India is ranked in the 60s in terms of asset size. It is the only Indian bank among the world’s largest 100 lenders. State-run banks’ merger has been talked about for long, especially given the need to create a lender of a global size. The government has earlier said said it would like to first merge SBI and its associate banks together first and then get to merging other banks.
According to some analysts, the government would like to merge a strong bank with a weaker one and also look at complementarity on the geographical presence front while taking such a call.
Other issues like the working ethos in a bank are also important and would have to be looked into. Bank unions are vociferously opposing plans of such mergers.
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