"भारतीय लोकतंत्र में यह युद्ध काल है। परिवर्तन का युद्ध काल है। दो सोच का टकराव है। राजनीति में स्थापित 'पेशेवर' चरित्र को उखाड़ फेंकने का युद्ध है। राजनीति 'सेवा' है, इसे स्थापित करनें का युद्ध है। यह युद्ध है, वंशवाद, जातिपाँति व मजहबी उन्माद को कुचलने और देश को आगे बढ़ाने का। इसका दौर कम से कम दो दशकों का हो सकता है। जीतने के लिए, जनता को धैर्य रखना होगा। विश्वास के साथ युद्ध के नायक का साथ देना होगा।"
लंबा है, पर पढ़ें जरूर
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हम प्रयागराज से काम करते हैं, जो भारतीय संस्कृतियों का संगम है, तीर्थराज के नाम से भी विख्यात है। मुगल या ब्रटिश ही नहीं आजादी की लड़ाई का भी प्रयागराज इपीसेंटर रहा। मोहनदास करमचंद गांधी को 'महात्मा' बनने के लिए प्रयागराज का अद्वितीय योगदान था। ब्रिटिश काल में प्रयागराज प्रशासन का केंद्र था। हाईकोर्ट, पुलिस मुख्यालय, आडिट मुख्यालय, मुद्रणालय, रेवेन्यू बोर्ड, पूरब का आक्सफोर्ड आदि सब प्रयागराज में हैं। प्रयागराज को प्रधानमंत्रियों का शहर कहा जाता है। नरेंद्र मोदी को लेकर अभी तक 15 प्रधानमंत्री हुए, जिनमें से 7 प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रयागराज से हैं, चाहे जन्म से या कर्म से।
उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रांत है। लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें यूपी से हैं। यू.पी. देश की राजशक्ति का केंद्र तो है ही, लेकिन यह देश की राजनीतिक दिशा भी तय करता है।
मोदी जी का लोक सभा के लिए बनानस संसदीय क्षेत्र का चुनना उनकी राजनीतिक सोच और दूरदर्शिता का उत्कृष्ट उदाहरण है। काशी से कन्याकुमारी, कामाख्या, कैलाश या फिर खंभात की खाड़ी को समझना बड़ा आसान है। जाहिर है, प्रधानमंत्री के प्रत्याशी के रूप में मोदी जी का बनारस चुनना और बड़ी सहजता से यह कहना कि 'मां गंगा' ने बुलाया है, वैसा ही था जैसे पानी में शकर घोल कर रस बनाना।
बनारस ! बनारस तो बनारस ठहरा, जो दिल से आये, उसके लिए बनारस बना-रस है, बरबस खींचता है। बनारस की जनांकिकी को देखिए, तो यह बात समझ में आ जाएगी। बनारस पकड़ता है, बांधता है और अपनाता है। देश का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं होगा, जहां की खुशबू बनारस में न हो। यहां राजा-रंक सभी प्रजा-भाव से रहते है, क्योंकि काशी के महाराजा देवाधिदेव बाबा विश्वनाथ है और द्वारपाल कालभैरव।
मोदीजी नि:संदेह देश के कोने-कोने में भ्रमण किए, लेकिन उनकी राजनीतिक यात्रा गुजरात से शुरू होती है, बहैसियत मुख्यमंत्री के। व्यवहारिक, अर्थात राजनीतिक प्रचलन के तौर पर, मोदी भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में अनफिट थे। गुजरात के मुख्यमंत्री बनते ही, इनका प्रबल विरोध और उनके सामने खड़ी चुनौतियां इसकी गवाह हैं। वे उस माटी के राजनेता नहीं थे, जिस माटी के राजनेता राज चला रहे थे। वे औरों से सर्वथा भिन्न थे।
आजादी के कुछ वर्षों बाद ही भारतीय लोकतंत्र 'पेशेवर' राजनीति में बदल गया। पेशेवर होने का मतलब वे सब दोष जो किसी 'पेशे' में होते हैं। दूसरे शब्दों में निहित स्वार्थ, परिवारवाद, भाई- भतीजावाद, भ्रष्टाचार आदि जैसी सामान्य बातें। कोई भी 'पेशा' लाभ का उद्दम होता है, तबकि लोकतंत्र की आधारभूत संकल्पना 'सेवा' से है। पेशा और सेवा, दोनों विरोधाभासी है, न समान है और न एक दूसरे के पूरक।
आजादी की लड़ाई 'सेवा' थी। मातृभूमि की सेवा। इस लड़ाई में जो लोग शामिल थे, वे निस्वार्थ देश सेवा भाव से थे, बिना किसी लालच या निजी लाभ के। यह बात अलग है, जिन्हें अगुआ माना गया, उनका तो सत्ता में आना एजेंडा था। अंग्रेजों की जगह खुज अंग्रेजों जैसी हुकूमत करनी थी।
नेहरू ने राजनीति को 'सेवा' से 'पेशे' में बदल दिया और शासन व्यवस्था में पेशेगत अनुसांगिक दोष- परिवारवाद, भाई-भतीजावाद, निजी स्वार्थ, भ्रष्टाचार आदि भारतीय राजनीति के अभिन्न अंग बन गये। नेता भ्रष्ट तो पूरी राजकीय व्यवस्था अर्थात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका भ्रष्ट होना सामान्य बात है। मीडिया कूदने से पीछे नहीं रहा। मनमोहन सरकार के समय तक तो मीडिया मंत्रिपरिषद में कोटा तय करने लगी थी।
वंशवाद दो जगह दिखने को मिलता है। राजनीति और उच्च न्यायपालिका में। राजनीति में परिवारवाद सीधे है, जबकि न्यायपालिका में परोक्ष है, जिसे प्रचलन भी भाषा में 'अंकल सिंड्रोम' के नाम से जाना जाता है। अभिषप्त राजनीति की यह मोटी तश्वीर है, जिसे समझना समय की जरूरत है और जिसे समझे बिना मोदी जी की राजनीति को समझना कठिन होगा।
घृणा की सारी सरहदें पार कर, मोदी जी का विरोध होना, दो बातों पर आधारित हैं। राजनीतिक विरोधियों के लिए मोदी बेहद खतरनाक, शातिर और बेईमान शासक हैं, वे पेशेवर भारतीय राजनीतिक के दुश्मन है समूल नष्ट करनेवाले हैं! जबकि शासक के रूप में मोदी देश और लोगों के लिए सरल, सुहृद और भरोसेमंद सेवक है। वे देश और लोगों की भलाई को लेकर रात-दिन काम करनेवाले व्यक्ति हैं। उनका निजी जीवन हो या सार्वजनिक जीवन, दोनों ईमानदार है।
उनको लेकर जो घृणा है वह राजनीति को लेकर उनकी सोच है, जो राजनीति के पेशेवर चरित्र पर कुठाराघात करती है। मोटे तौर पर उन्होंने खुद को 'प्रधान सेवक' कहा, विरोधियों ने इसे जुमला कहा। उन्होंने न कहा, न खाऊंगा और न खानें दूंगा। इसका माखौल उड़ाया गया। माखौल उड़ाने वालों के लिए, राजनीति तो काजल की कोठरी रही है, जहां कितना भी सयाना आदमी जाए, वह बिना कालिख के निकल नहीं सकता। तो, मोदीजी कैसे निकल लेंगे!
मोदी जी भारतीय राजनीति का स्थापित चरित्र, अर्थात 'पेशा' को विस्थापित कर रहे हैं, जो इस देश के राजनीतिक खिलाड़ियों को बिलकुल पसंद नहीं है। इस चारित्रिक बदवाल से राजनीति से परिवारवाद, भाई-भतीजावाद, निजी स्वार्थ, भ्रष्टाचार को सीधा खतरा पैदा हो गया है। इस पेशेवर राजनीतिक व्यवस्था से जुड़े दलाल, बुद्धिजीवी, मीडिया, ब्यूरोक्रैसी, न्यायपालिका जिन्हें 'लुटियंस जोन' के नाम से भी जाना जाता है, बिलबिला रहे हैं। उनका धंधापानी संकट में पड़ चुका है और दूसरी तरफ मोदीजी इन राजनीतिक घरानों के वर्षों के राजनीतिक हथियारों को निष्क्रिय करते जा रहे है, इनके राजनीतिक मुद्दों को खाते जा रहे हैं। वादे ही नहीं, बल्कि परिमाण, समस्या ही नहीं बल्कि समाधान, सत्ता ही नहीं बल्कि विकास, शिलान्यास ही नहीं बल्कि उद्घाटन जैसी तश्वीरें आम आदमीं को सोचने पर मजबूर कर रहीं हैं कि मोदी विश्वसनीय हैं, दृढ़निश्चयी हैं, धैर्यवान है, जो कहते हैं वह करते हैं, ईमानदार हैं, जो अपने आपमें अद्भुत है, अद्वितीय है और जो भारत जैसे विशाल देश के लिए उन्हे अपरिहार्य बनाता है। जनता के बीच मोदी एक "ब्रैंड" हैं। अर्थात मोदी जनता के ब्रैंड अम्बेसडर हैं। एकमात्र 'आइकन' जिस पर देश क्या, दुनिया की निगाहें हैं।
मोदी आर.एस.एस. के प्रशिक्षु, गुजरात उनकी राजनीतिक दीक्षा केंद्र, बनारस उनका अभ्युदय केंद्र, उत्तर प्रदेश उनकी प्रयोगशाला और नई दिल्ली उनकी वेधशाला है। मात्र सात वर्षों में दुनिया ने इस वेधशाला की हनक और इसकी क्षमता को देखा है। वैश्विक महाशक्तियों के थिंक टैंक दुनिया को आगाह करते रात-दिन नई दिल्ली की वेधशाला की कमान संभाले मोदी को वैश्विक खतरा बता रहे है।
भारत में मोदी के राजनीतिक विरोधियों से लेकर वैश्विक महाशक्तियों का एक एजेंडा है: मोदी को हटाओ। इसी उपक्रम में भारत के धुरविरोधी चीन और पाकिस्तान के साथ कांग्रेस की लाबिंग को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। बामपंथियों, अर्बन नक्सलियों, तथाकथित बुद्धजीवियों, एवार्ड-वापसी गिरोहों, भारत में रहने में डर लगता है कहनेवाले बालीवुड के नचनियों, मजहबी उन्मादियों, आतंकियों जैसी ताकतों को मोदी के खिलाफ काम करते देखा जा सकता है। ऐसे लोग मोदी में महान भारत देखते हैं, हिन्दुत्व देखते हैं, वैश्विक गुरू देखते है, ताकतवर भारत देखते हैं, जो उन्हें कतई रास नहीं आता। राष्ट्रोत्थान ऐसे लोगों को रास नहीं है। इनको अपनी दूकान चलाना है, मन बहलाने के लिए भारतीय बच्चों (वोटरों) को झुनझुना बेचना है। हम समझते है, भारत युवा हो चुका है, अब इसे झुनझुना पकड़ा कर कोई दूकानदार इसका मन नहीं बहला सकता। इनकी और जरूरतें और अपेक्षाएं हैं, जिसे वे मोदी में देखते हैं।
मोदी युगप्रवर्तक की भूमिका में है। भारतीय जनमानस के बदलाव का युग शुरू हुआ है। लोगों ने जिस तरह से परिवारवाद को दूध में पड़ी मख्खी की तरह निकाल फेंका है, वैसे ही उन्हें अपनीं लालच पर नियंत्रण करना होगा, जातिवाद से हटकर सोचना होगा, विकास को एक हक के रूप में देखना होगा। सोचना चाहिए। यू.पी. चुनाव में नई राजनीतिक चेतना का आगाज दिखता है। कांग्रेस/ मायावती का वंशवाद डूब चुका है।
मुलायम का वंशवाद, जो जातीय और मजहबी उंमाद पर टिका है, कुछ वर्षों में समाप्त हो जाएगा। यू.पी. में माफिया, गुंडा, उन्मादी मजहबी, उपद्रवी, आतंकी नेस्तनाबूद हो चले हैं और इनकी अगली सात पुस्तों तक कोई दोबारा यह बनने का सोच नहीं सकेगा।
ये जनता को भेंड़ समझने वाले लोग हैं जो जनता को मुफ्तखोर समझकर मुफ्त की बिजली, पानी, ऋणमाफी का वादा कर वोट मांगते हैं। भेंड़ समझी जानेवाली जनता को गौर करना होगा, मुफ्त का इतना कंबल कहां से आएगा? इसका उत्तर बिल्कुल सटीक है। कंबल तो भेंड़ों के ऊंन से ही बनेगा! कोई नेता या राजनीतिक दल अपनी जागीर से कुछ देनेवाला नहीं है। जो देगा वह देश, राज्य के खजाने से देगा।
एक कंबल देगा, दस दिया गया बता कर 9 कंबल खुद रख लेगा। आज तक यही होता आया है। नेताओं के धन- संपदा की बैलेंसशीट को देखो, तो 9 कंबल की करामात का खुलासा होगा। सारा राजनीतिक झगड़ा, मोदी विरोध, योगी विरोध, भाजपा विरोध इसी 9 कंबलों को लेकर है। तय देश की जनता को करना है।दस में से एक कंबल लेकर संतुष्ट होना है 9 कंबल नेताओं को देना है या उसे दस का दसों चाहिए जिसका वह हकदार है!
(जे.एन.शुक्ला)
12.3.2022
9559748834
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