Forum of Bank Pensioner Activists
PRAYAGRAJ
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनाम् आर्तिनाशनम्।
Why Drama on Flimsy Issue?
News is News, Because of No News...
News afloat, alleging sabotage & back stabbing, by 4 Officer Unions, need cursory analysis. In circular of 17th Oct.,2020 4 OUs informed officially that they were invited by IBA to ink Joint Note on 18th October, which later postponed citing some reasons. There is no any such allegation that IBA backed out from the reached understanding. Simply inking time is deferred.
Certain questions are very natural, as to how postponing inking date could become a cause of agitation, while these Unions, including 4 Workmen Unions have always been casual, callous & evasive to any protest, leave direct actions, on most contentious issues like Pension updating, merger of Special Allowance in Basic Pay, 5 days Banking, 100% DA to all, Health Insurance to retirees from Banks WFs as per directive of DFS dated 24.2.2012. All above issues are of discriminations. As a Trade Union how Bank Unions can turn their eyes from such sheer discriminations is a matter of shock. It reflects, how Unions have gone bankrupt. It reflects, their disunity and hegimoney war on turf. It reflects, they are money hungry. It reflects, they are corrupt in their decisions. It reflects, they go by 'convenience' & not by conviction. Working Bank men, irrespective their cadre or Union must come out from slumber and see the serious threats on their doors. Whatever, prescriptions, these 4 OUs have prescribed in their circular not to this or that, that shows it have been in effect with the support and concurrence of these Unions?
There were some common issues of both cadres, officers & workmen. These issues should have been subject to common stand and understanding. It's not very valid issue to read beyond proportions, but 4 OUs have been in haste, for unexplained reasons.
They have no issues like Pension updation on RBI lines, 5 days Banking, merger of Special Allowance in Basic, 100% DA to all or implementation of DFS letter dated 24.2.2012 in Health Insurance matter of Retirees. This position is explicitly clear and now curtain is lifted. Also, see how Unions keep their cards to chest and do things in clandestine manner. This news is news now when event is deferred.
Greetings
(J. N. Shukla)
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Sri Kamlesh Chaturvedi writes on facebook as follows
लो अब कर लो बात
चारों अधिकारी संघठन बहुत कुपित हैं IBA से और ये ग़ुस्सा इसलिए है कि आईबीए ने 18 अक्टूबर को “हस्ताक्षर समारोह” आयोजित करने की सहमति दी थी और इस सहमति के बाद देश भर से अधिकारी संघठनों के प्रतिनिधियों को विधिवत निमंत्रित कर लिया गया था लेकिन अकस्मात् 17 अक्टूबर को पूर्वाह्न आईबीए ने यह “हस्ताक्षर समारोह” आयोजित करने से मना कर दिया । यानि अब इन अधिकारी संघठनों को ग़ुस्सा किसी माँग को मनवाने के लिए नहीं है, इनकी सारी माँगें आईबीए ने मान ली थीं, इनको ग़ुस्सा इस बात से है कि जब इन्होंने अपने अपने प्रतिनिधियों को “हस्ताक्षर समारोह” के लिए निमंत्रित कर लिया तब आईबीए ने ऐन वक़्त पर 18 अक्टूबर को समारोह करने से मना कर दिया ।
यानि ग़ुस्सा कुछ उसी तरह का है जैसे अक्सर शादियों के बारे में सुना जाता है कि लड़का लड़की ने एक दूसरे को पसन्द कर लिया, शादी के लिए राज़ी हो गए, शादी की तिथि निर्धारित हो गई, निमंत्रण कार्ड छप गए, नातेदार रिश्तेदार शादी में भाग लेने के लिए ट्रेन और फ़्लाइट के ज़रिए बराती बन जब शादी समारोह में भाग लेने पहुँचने ही वाले थे कि लड़की वालों ने साफ़ बोल दिया कि निर्धारित तिथि को शादी नहीं हो सकती । अब ऐसे में लड़के के बाप को ग़ुस्सा आना ही चाहिए -आता भी है-ठीक वैसा ही ग़ुस्सा अधिकारी संघठनों के नेताओं को भी आ गया और ग़ुस्से से भरे इन नेताओं ने जिन आंदोलनात्मक तरीक़ों से शुरुआत करने की घोषणा की है उसे अधिकारियों को भली भाँति समझना ज़रूरी है :
- अधिकारी केवल छः बजे तक ही दिए गए काम के लिए रुकेंगे यानि आठ घंटे काम करेंगे और अगर 18 को हस्ताक्षर समारोह आयोजित कर हस्ताक्षर करवा लिए होते तो फिर अधिकारियों को छः बजे के बाद जितनी देर चाहे मैनज्मेंट रोक कर काम ले सकता था तब कोई परेशानी नेताओं को नहीं थी !
- अधिकारी छः बजे के बाद आधिकारिक एसएमएस/whatsapp सन्देशों का जवाब नहीं देंगे - यानि सामान्य स्थिति में चौबीसों घंटे एसएमएस/Whatsapp पर आधिकारिक संदेश भेजे जा सकते हैं और अधिकारियों को चौबीसों घंटे जब जब संदेश मिलें तब तब उनका जवाब देने पर उनके नेताओं को कोई आपत्ति नहीं है - यानि नेताओं ने एसएमएस और Whatsapp को आधिकारिक संदेश के माध्यम के रूप में अपनी स्वीकृति दे दी है - उच्च अधिकारी चाहें रात को दो बजे संदेश भेजें चाहें सबेरे चार बजे ।
- अधिकारियों को निर्देश दिया जाता है कि वे रविवार या अवकास के दिन कोई भी आधिकारिक कार्य जिनके उदाहरण भी दिए हैं, नहीं करेंगे - नेताओं का ग़ुस्सा अगर शांत कर दिया जाए तो वे रविवार और अवकास के दिन भी काम करेंगे ।
कुल मिलाकर ग़ुस्से में नेताओं ने सच्चाई बोल दी है और वह यह कि आईबीए से उनकी निकट की रिश्तेदारी है और अधिकारी बैंक की नहीं बल्कि अधिकारी संघठनों की सेवा कर रहे हैं । आख़िरी बिन्दु पर ध्यान दें -“Officers are directed” ये नहीं लिखा है कि “officers are requested” l
अब इन संघठनों के सदस्य अधिकारियों को यह अच्छे से पता चल जाना चाहिए कि ख़ुद उनके नेता उन्हें क्या समझते हैं - अगर IBA या मैनज्मेंट नेताओं की बात मानती रहे तब अधिकारियों से चाहे तो बंधुआ मज़दूरों से भी बदतर व्यवहार करते हुए जितनी देर तक चाहे काम ले, रविवार और अवकास के दिन भी बुलाए तब कुछ भी ग़लत नहीं है लेकिन अगर इनकी बात न माने तब ये नेता जो निर्देश देंगे वो अधिकारियों को मानने पड़ेंगे ।
धन्य हैं ऐसे नेता और उनकी मानसिकता !
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Forum of Bank Pensioner Activists
PRAYAGRAJ
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्रणिनामार्तिनाशनम्॥
सत्य, इतना रहस्यमय भी नहीं होता !
कमियां निकालना, निंदा करना, बुराई करना हो सकता है थोड़ा कठिन हो, पर अहं पालना बिलकुल आसान होता है। इसे दूर करना या इससे बच पाना असंभव तो नहीं, पर कठिन अवश्य है। यह लोगों का भ्रम है कि अहं युवाओं का विकार है। उम्रदराज़ लोगों में, नहीं कुछ तो, अपने जीवन की लंबी उम्र को लेकर अहं होता है कि उन्होंने लंबी दुनिया देखी है, बाल धूप में सफेद नहीं किये हैं। यह बिडम्बना है, ऐसे लोग अपनी लंबी उम्र को अपने ज्ञान का पैमाना मान लेते हैं! हमारी जीवनशैली ऐसी ही है, हम इसे पूरी तरह से तो बदल नहीं सकते, लेकिन कुछ ढील की गुंजाइश तो हर जगह होती है। हम बैंकर्स हैं और जानते हैं कि हर सिगनेचर 100% नहीं मिलती, फिर भी हम चेक पास करते ही हैं। दुनिया कुछ तो भरोसे लायक है, यह मान कर हम सब को यथासंभव एक दूसरे पर भरोसा करना चाहिए। कोई जरूरी नहीं कि हर कोई धोखेबाज हो। और, हमारे बीच जो धोखेबाज हैं उनकी कलई परत दर परत खुल ही रही है।
बहरहाल, जब दुनिया यह कहती है कि 'हार मान लो' तो 'आशा' धीरे से कान में कहती है कि 'एक बार फिर प्रयास कर के देखो।' और, यह ठीक भी है! 'जिंदगी आइसक्रीम' की तरह है, टेस्ट करो तो भी पिघलती है, वेस्ट करो तो भी पिघलती है। इसलिए, उम्र के बावजूद, टेस्ट करना सीखें, वेस्ट तो हो ही रही है। इस भावना से आगे बढ़नें की जरूरत है। हर कोई साथ चलेगा, संभव नहीं है और ऐसा होना जरूरी भी नहीं है। ऐसा होता भी नहीं। जो अक्षम और असहाय हैं, लाचार हैं, उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है। हमारा लक्ष्य तो उनकी मदत करने का है। एक बड़ा समूह पीछे छूट चुका है, काफी लोग बिछड़ चुके हैं। हम आज साथ हैं, हो सकता है, कल हम भी साथ न दे सकें और बिछड़ जायें। यह कारवां है, मिलना और बिछड़ना जारी रहेगा, इस सच्चाई को स्वीकार करते काम करने वाले लोगों को काम करते रहना है।
हम जैसे भी है, जिंदा तो हैंं। यह तसल्ली के लिए काफी है ! हमारे इर्दगिर्द ऐसे लोगों की भरमार है, जिनकी जिन्दगी रोज की दिहाड़ी पर टिकी हैं। कल की कल देखी जाएगी, यह मान कर, वे शकून की नींद सोते हैं। यह एक तश्वीर है, आत्मावलोकन के लिए।
हम इस स्थिति से भिन्न स्थिति में हैं और ऐसा भी नहीं है कि हम कोई गैरवाजिब चीजों को हासिल करने की चेष्टा कर रहे हैं । हम तो भेदभाव रहित समानता का व्यवहार चाहते हैं। यह हमारा हक है। कमजोर समझकर, हमें इससे वंचित किया जाता रहा है। यह हमारे साथ अनैतिक अत्याचार है।
सवाल है, हम कब तक इस अत्याचार को बरदाश्त करें? हमें चुप बैठ जाना चाहिए, यह बात ठीक नहीं है। दुनिया इस बात का गवाह है कि हर इंसाफ की लड़ाई को किसी ने अकेले ही शुरू किया। पर, यहां हम अकेले नहीं हैं। हम सब एक दूसरे से अंजान हैं, बेखबर हैं। हममें अनेक भिन्नताएं हैं। बावजूद इसके, हम एक मिसन को लेकर एकजुट हैं। हमें उम्मीद है, हर कोई अपने निजी राग-द्वेष से ऊपर उठकर, वीतराग मनोभाव से इस मिशन को आगे बढ़ाएगा। सफलता-असफलता संघर्षों के मानदंड पर तय होगा, चाहे वह सड़कों पर हो या अदालतों में!
लगता है, पेंशनरों को लेकर इस बार फिर 2015 दोहराया जाएगा. 2015 में बड़ी उम्मीदों को लेकर टिकी पेंशनरों की आंखों के सामने अचानक अंधेरा छा गया, जब पेंशन रिवीजन को लेकर पेंशनरों का अपनी बैंकों के साथ किसी अनुबंधात्मक रिस्तों को तिलांजलि देते एक ज्वाइंट नोट पर बिना किसी विरोध, प्रतिकार या प्रतिक्रिया के सभी यूनियन नेताओं ने हस्ताक्षर कर दिया. ज्वाइंट नोट पेंशनर-बैंकर्स के रिस्तों का मृत्यु प्रमाणपत्र था।
यह दृष्य महाभारत के द्रोपदी वस्त्र हरण जैसा था, जहां बड़े-बड़े महारथी सर नीचा किये सब कुछ होनें दिया था। यूनियनों की कायरता और मौकापरस्ती के कारण, बैंककर्मियों का भविष्य विनष्ट होना तय है। इसकी शुरुआत उसी दिन हो गई थी, जिस दिन नपुंसकों का समूह यू.यफ.बी.यू. बना।
बैंककर्मियों के हितों की जगह नेता अपनें हितों के लिए सौदा करने लगे। सबके अपने-अपने निजी हित हैं, अहं हैंं, वर्चस्व की जंग है, जिसका सीधा असर बैंककर्मियों के हितों पर पड़ रहा है। ट्रैड यूनियन एक व्यापार बन गया है। कभी यह 'कंविक्सन' का विषय होता था, लेकिन आज यह 'कनवेनियंस' का विषय बन गया है। मानता हूं सभी ऐसे नहीं हैं, लेकिन बोलबाला तो ऐसों का ही है। चलती उन्ही की है। जो ईमानदार हैं, उनका अपराध यह है कि वे बेइमानों के साथ खड़े दिखते हैं, गलत का विरोध, प्रतिकार और तिरस्कार नहीं करते और खुद को दुष्कर्मों का भागी बना लेते हैं।
ईमानदारी, सच्चाई, समर्पण और बैंककर्मियों व बैंकिंग के हितों से प्यार कुछ ऐसे मानदंड हैं, जिन पर यूनियन नेताओं की भूमिका को आंका जा सकता है। हम यह विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि बैंककर्मियों का नेतृत्व सही हांथों में है। यह आज की तश्वीर है, मानना न मानना बैंककर्मियों की मर्जी है।
इतिहास तो कायरों का भी लिखा जाता है। यूनियन नेता कहते हैं कि बैंक पेंशनरों से उनका क्या लेना-देना। यह केवल वर्तमान पेंशनरों के लिए नहीं, बल्कि उन लाखों लोगों के लिए भी नकारात्मक संदेश है, जो पेंशन आप्टी हैं और आज भी नौकरी में हैं।
हम काफी समय से जोर देकर कहते आ रहे हैं कि यूनियन नेतृत्व बैंकर्स के व्यूह में फस गया है। बैंकर्स ने बड़ी चालाकी से नेताओं के गले में पट्टा डालकर, रस्सी अपने हाथ से पकड़ रखा है। अब तो ये पट्टे वाले जीव, अपने मालिकों, अर्थात यूनियन सदस्यों, पर ही भौकते हैं और जरूरत होने पर काटते भी हैं।
इस चक्रव्यूह से बाहर आने का इनके पास कोई रास्ता नहीं है। अगर कोशिश भी करें और निकल भी आएं तो इनकी विश्वशनीयता का झंड इतना पिट गया है कि यह कहनें में कोई गुस्ताखी नहीं होगी कि बाहर इनकी औकात धोबी के कुत्ते जैसी ही होगी जो न घर का होता है और न घाट का.
इस बार वार्ता और समझौता में कुछ भी द्विपक्षीय नहीं है. सब कुछ एक पक्षीय है। इसमें आईबीए का पीयलआई है, 15% में केवल 2.5% मूल वेतन में है, शेष का घालमेल है. अवकाश नगदीकरण आईबीए की है। छुट्टियां बेचो, लो मत। लेकिन सेवानिवृत्ति पर अवकाश नकदीकरण यथावत। इसमें खुश होनें का क्या है?
लुकछिप कर, आओ और समझौते पर डाटेड लाइन पर हस्ताक्षर करो, ऐसा पहली बार होने का षणयंत्र जारी है। इसी कारण से हम द्विपक्षीय वार्ता प्रणाली को खारिज करते आ रहे हैं कि अब यह रास्ते से भटक गई है, अनुत्पादक और गैर-प्रासंगिक हो गई है। ऐसे में हम अन्य विकल्पों की जरूरत की बात करते हैं।
रिजर्व बैंक में लागू वेतन, पेंशन, सेवाशर्तें आदि को सार्वजनिक बैंको पर लागू किया जाये। यदि ऐसा नाबार्ड में है, तो अन्य सार्वजनिक बैंकों में क्यों नहीं हो सकता? रिजर्व बैंक, नाबार्ड और सार्वजनिक बैंकें सरकारी पूंजी पर, सरकारी स्वामित्व में हैं। अगर इनकी पेंशन नीति एक जैसी हो सकती है, तो वेतन, सेवाशर्तें आदि क्यों नहीं। लेकिन, सवाल यह है कि अगर ऐसा होता है तो जनाबेआली नेताओं का होगा? (क्रमश: जारी)
(जे.एन.शुक्ला)
18.10.2020
9559748834
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