Friday, October 11, 2019

Future Of Bipartite Settlement Wage Revision

मन बहुत विचलित था, सोचा थोड़ा सा
गुबार निकाल लें, हल्का हो जायेगा !!

कुछ मन की- कुछ जन की......

अनिल कपूर की एक फिल्म थी, जिसमें वह एक दिन का सी एम बनता है. अनिल कपूर एक टीवी एंकर की भूमिका में अमरीश पुरी का इंटरव्यू लेता है, जो टेलीकास्ट होता रहता है. अमरीश पुरी सी यम था. वह पहले तो सवालों का जवाब बढ़-चढ़ कर जोर-शोर से देता है और एक स्थिति ऐसी आती है जब वह चुप हो जाता है, दोनों ओठों पर उंगली खड़ी कर अपने समर्थकों को कुछ न बोलने का इशारा करता है. एक समर्थक टेलीकास्ट क्रू पर हमला करता है, चप्पल लेकर. सभी जानते हैं, ऐसा क्यों हुआ! टेलीकास्ट से उपजी स्थिति ने अमरीश पुरी का बड़बोलापन बंद कर दिया, ओठ सिल दिये.

अब हमारे मित्रों के मन में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि मैं कौन सी नई बात बता रहा हूं तो मैं स्पस्ट करना चाहता हूं कि बैंक यूनियनों के बड़े-बड़े सूरमा सोसल मीडिया से भयक्रांत होकर आजकल अपने ओठ सिल लिए हैं और अपने समर्थकों को भी इशारे-इशारे संदेश दे रहें हैं कि चुप रहो, वरना सोसल मीडिया पर छीछालेदर होगी. मेरा छोटा सा सवाल है, ऐसा घटिया काम ही क्यों करते हो कि मुंह छुपाना पड़े?

अभी तक सूरमाओं नें जितने कदम उठाये हैं, वे उलटे पड़ते जा रहे हैं. एक नवोदित सितारे जोश में होस खो बैठे और दो दिनी हड़ताल करवा दिया. जोश थोड़ा कम हुआ, क्योंकि बैंकर्स या सरकार नें कोई घास नहीं डाली. फिर, दिल्ली में जोर दार धरना हुआ. हड़ताल के बाद धरना? कभी कभी गाड़ी रिवर्स गेर में लेना पड़ता है! रिटायरीज को लालीपाप दिखा उनकी शिरकत करा धरना सफल करा लिया. धरने में पेंशन रिवीजन का बढ़-चढ़ कर बिगुल बजाया. धरना पप्पू के चौखट पर दम तोड़ा. कुछ दिन बाद, एक रिटायरी यूनियन, जिसके बल पर अपना धरना सफल बनाया था, के सम्मेलन से कन्नी काट लिया, क्योंकि वहां अपने धुर विरोधी से सामना करना पड़ता. पलायनवाद का माडल पेश किया.

दूसरी तरफ, बैंकर्स ने कर्मचारी यूनियनों से कहा, यदि वे तैयार हैं तो आई.बी.ए. वेतन वार्ता और समझौता करने को तैयार है और जिन सिद्धांतों पर कर्मचारियों का समझौता होगा, उन्हीं सिद्धांतों पर अधिकारियों के वेतन तय कर दिये जायेंगें. यूनियनें रजामंद हो गई ं. इसे पैर के नीचे की जमीन खिसकना कहते हैं. इसके बाद के घटनाक्रमों और परिणतियों की नाटकीय प्रस्तुतिकरण ताजी है. लोग घुटने के बल यहां-वहां- चेन्नई, मुम्बई, दिल्ली- भटकते, दे दाता के नाम तुझको अल्ला रखे, चीखते पुकारते 11.9.19 को वार्ता में हाजिर हो गये.


बात बनी कि 20.9.19 को दिल्ली में धरना और वित्त मंत्री से मिलकर अपनी बातों को रखा जायेगा.अच्छा विचार था. वित्त मंत्री से मिल कर अपने पक्ष को रखने का बेहतर परिणाम जरूर आता. लेकिन, बिल्ली ने रास्ता काट दिया.  बैंकर्स नें 17.9.19 को वार्ता बैठक बुला लिया और कुछ सकारात्मक बातें सामने रख धरने और वित्त मंत्री से मिलने के कार्यक्रम को पंचर कर दिया.  परिणाम स्वरूप 20.9.19 का कार्यक्रम टाल दिया गया.

अचानक 26/27 सितंबर को होने जा रहा शोर-शो थम गया. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं थी. ऐसा तो होना ही था. ये तो दिखने वाला हाथी दांत था. पता चला कि वित्त मंत्रालय के सचिव से वार्ता के उपरांत दो दिनी हड़ताल टाल दी गई. बैठक में सब तय हो गया. क्या तय हो गया? वही जो 17/9/19 को बताया जा चुका था. मर्जर से होने वाली दिक्कतों के लिए एक कमेटी बनेगी. वह तो बनना ही था. देना, विजया, बीओबी मर्जर पर भी कमेटी बनी थी. पर यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी. मानडेट के मामले में आई बी ए ने 17/9/19 को ही कह दिया था कि पी यल पी की शर्त मान लेने पर स्केल 7 तक का समझौता होगा. क्या नया गुल खिला कि हड़ताल गुल हो गई? किसी को पता हो तो बताये! चलो दो दिन का वेतन कटने से बचा, वरना सनक तो सनक होती है. यूनियनों में अब नेता कम इदी अमीन ज्यादा पैदा हो गये हैं.

बात अनिल कपूर की फिल्म से शुरू हुई थी. जो दृष्य वहां मीडिया को लेकर था, वैसा ही दृष्य आज बैंकिंग यूनियनों में है. सोसल मीडिया से डरे सहमें नेताओं की बोलती बंद है, ओठ सिल रखे हैं. सवालों से कन्नी काटते दिखते हैं. होड़ है, एक दूसरे की न मानने की! नीचा दिखाने की होड़! वाहवाही लूटने की होड़! ताक-झांक की होड़! एक दूसरे को भ्रष्ट कहने की होड़! महफिल लूटने की होड़! आरोप-प्रत्यारोप की होड़! एक अजीब रेस जारी है! बैंकिंग रेस कोर्स का मैदान बन गई है. हर कोई अपना घोड़ा दौड़ा रहा है. इस होड़ की दौड़ में बैंककर्मियों के मुद्दे कोसों पीछे छूट गये हैं. दूर दूर तक अता पता नहीं है. मई 2017 में प्रस्तुत मांगपत्र पर मई 2018 में वार्ता शुरू होती है. सरकार ने जनवरी 2016 में वार्ता शुरू करने और 1.11.2017 के पहले समझौता करने का निर्देश दिया, 4 स्मरण पत्र भेजा पर पत्ता तक नहीं हिला. बैंकर्स चुप थे, तो उसके पीछे कोई ठोस कारण रहे होंगे. लेकिन, यूनियनों के चुप रहने के रहस्य से आज तक परदा नहीं उठा, यह अजीब बात है. सब के सब चुप हैं, किसी न किसी दुरभि संधि को लेकर!

सबसे बड़ी यूनियन एआईबीईए है. वार्ता, निर्णय और समझौता सब यूनियनें मिल कर करती रही हैं, लेकिन अच्छा हुआ तो औरों ने किया और बुरा हुआ तो एआईबीईए ने किया. मीठा-मीठा गप्प कड़वा-कड़वा थू! पेंशन रिवीजन नहीं हुआ तो दोष एआईबीईए के नेता पर, बीमा का प्रीमियम बढ़ गया, तो दोष एआईबीईए के नेता पर, 2% आफर आया तो दोष एआईबीईए का. समझौता हो गया तो ढोल मजीरा हम बजायेंगे, नहीं हुआ तो विलाप एआईबीईए के नाम पर हम करेंगे. समझ में नहीं आ रहा है, हो क्या रहा है? एआईबीईए ठीक नहीं है, तो शेष भाई लोग मिल कर काम क्यों नहीं कर रहे है? पर मिल कर काम तब करें जब काम करने का मक्सद हो!. मक्सद तो केवल दोषारोपण करना है, भ्रम और संसय का माहौल बनाना है, असंतोष फैलाना है, सदस्यों को बरगलाना है, फूट डालना है. यह सब आई बी ए को भाता है, उसे मजबूत करता है. बैंक कर्मियों की मांगों को कमजोर करता है. ऐसा होता दिख रहा है, लेकिन ये दुष्चक्र बंद नहीं हो रहा है. नेता अपने सदस्यों से डर रहे हैं कि वह भ्रमित न हो जाये. ऐसे में, मैनेजमेंट बेफिक्र होकर मनमानी भी करे, तो रोकथाम हो पाना कठिन होता जा रहा है.

कितना खोखला लगता है वह नारा कि 'दुनिया के मजदूरों एक हो'. बैंकिंग में 9 छोटी-बड़ी यूनियनें हैं. एक समय था सबकी अपनी ढपली-अपनी राग थी. स्व. तारकेश्वर चक्रवर्ती ने भेद-भाव को पाटा, बड़ा संगठन होने का फर्ज निभाया, सबको बराबरी के एक मंच पर लाया. यूनाइटेड फोरम बनाया. आज उन्हें अफसोस हो रहा होगा कि लोगों के अहं से उनका प्रयास कितना छोटा पड़ गया. दूसरों के साथ बिरादराना फर्ज का दंभ भरने वाले, अपनों की ही कब्र खोदने में लगे हैं. किसी के गिरने पर हम तालियां बजाते हैं. कहीं न कहीं बड़ी चूक है कि कारवां बिखर गया. अफसोस, ऐसा न होता तो कितना अच्छा होता.

पेंशनर्स वही है, जिन्होंने लड़ कर पेंशन नीति हासिल किया. मैनेजमेंट, सरकार यहां तक की अपनों के प्रबल विरोध के बाद पेंशन हासिल किया. आज सब को पेंसन मिल रही है. उनको भी मिल रही है जिन्होंने इसका जम कर विरोध किया था और बहिष्कार भी. लेकिन आज पेंशनरों के साथ बेगानों  जैसा व्यवहार वही यूनियनें कर रही है, जिन्हें पेशनरों ने अपने खून- पसीने से खड़ा किया था. अब लोग ऐसे जा रहे हैं, जैसे जानते नहीं, पहचानते नहीं. पता नहीं ट्रैड यूनियन के एतिहासिक पन्नों में इसे किन अक्षरों में लिखा जायेगा. इतनी मौकापरस्ती तो दुश्मनों को भी लज्जित कर देगी. मानना होगा, समय बलवान होता है. ऐसा ही रहा तो एक दिन यूनियनों और नेताओं से पूरा विश्वास उठ जायेगा, दूकानें बंद हो जायेंगी, अभी तो केवल विश्वास डिगा है. अगर ऐसा ही रहा तो वह दिन दूर नहीं जब बैंककर्मीं अपने नेताओं की लानत-मलानत करने में जरा भी संकोच नहीं करेंगे. यूनियनें एक पवित्र और अपरिहार्य संस्थायें हैं. इन्हें अपवित्र न किया जाये. इनके मूल्यों और संस्कारों की रक्षा हो ताकि आने वाली सीढ़ियां विश्वास और गर्व से बढ़ सकें.

-जे. एन. शुक्ला
प्रयागराज
11.10.2019

(ठीक लगे तो औरों से भी साझा करें-धन्यवाद)

3 comments:

  1. Pl comment in English. In soth india 98% civilians do not know hindi, especially the senior citizens middle aged persons.

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  2. Please give English translation for Hindi messages

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