UFBU के खंडित होने पर घड़ियाली आसू मत बहाओ और हड़ताल का ढकोसला भी मत करो!
हर नेता अपराध बोध से ग्रस्त है और वह इससे मुक्ति चाहने के लिए छटपटा रहा है. यूयफबीयू क्यों टूटा, किसने तोड़ा, किसलिए टूटा अब इस पर विलाप करना वैसा ही निरर्थक है, जैसे मृत्यु पर परिजनों का रोना-धोना!
11 सितंबर की बैठक में ऊपरी तौर पर सब ठीक ठाक था, पर अन्दर-अन्दर आत्मग्लानि की ज्वाला धधक रही थी, एक बहुत बड़े पराभव को लेकर, हार को लेकर. कसक ऐसी थी जो किसी से कही नहीं जा सकती थी. यह एक गलत कदम की परिणति थी, जिसने समूचे बैंक अधिकारी समुदाय को मुह के बल गिरा दिया था. काश! ऐसा न होता और बाकी लोग तटस्थ न होते. जो तटस्थ होते हैं वे कायर होते हैं और इतिहास कायरों का भी लिखा जाता है, यह एक तथ्यपरख टिप्पणी है जो वेशक इस घटना क्रम मे शटीक नहीं बैठती.
एकला चल का निर्णय एबाक का था. यूयफबीयू के दायरे से बाहर दो दिन की हड़ताल के बम का धमाका उनका था. फिर दिल्ली में धरने की आतिशबाजी जोर-शोर से रही और वह राहुल गांधी के चौखट पर दम तोड़ गई. धरने में पेंशनर्स बड़ी संख्या में हिस्सा लिए, ऐसे आश्वासन दिये गये, जैसे इसके पहले किसी ने कुछ किया ही न हो. एक इमैज बनाने की कोशिश थी सो हुई. कलई तो तब खुली जब एआईबीआरयफ के सम्मेलन में एबाक के नेता जी नहीं पधारे.
एबाक की हड़ताल और वार्ता बाईकाट के बाद की परिणतियां बहुत बुरी रहीं. बैंकर्स का प्रस्ताव कि यदि कर्मचारी यूनियनें वार्ता एवं समझौता के लिए तैयार हों तो वे वार्ता और समझौता करेंगे तथा जिन सिद्धांतों पर कर्मचारियों का समझौता होगा उसी पर अधिकारियों के वेतन एवं सेवा शर्तें तय कर दी जायेंगी. यह खतरे की घंटी थी और बज गई.
अब सभी अधिकारी संघें चेन्नई में बैठक करती हैं और फिर आईबीए और सुनील मेहता से मिल कर गतिरोध दूर करने का आग्रह करते हैं, पत्र देते हैं. यूएफबीयू भी पत्र देता है. घूम फिर कर 11 सितंबर की बैठक होती है और स्थिति पर विचारोपरांत मर्जर के खिलाफ और वेतन समझौता शीघ्र करने के लिए 20.9.19 को धरने तथा वित्त मंत्री को ज्ञापन देने का निर्णय होता है. यह सर्वसम्मति से हुआ, ऐसा स्पस्ट है.
बैठक बे बाहर आने के कुछ घंटों में घटनाक्रम तेजी से बदलता है. एबाक एंड कं. 26-27 सितंबर को हड़ताल करने की घोषणा करती है. एनवोबीडब्लू कहती है की 30 सित. व 1 अक्टूबर की घोषणा करो तो हम साथ रहेंगे. अब एआईबीईए 22.10.19 को एक दिवसीय हड़ताल की घोषणा करती है, मर्जर के खिलाफ.
17.9.2019 को आईबीए के साथ वेतन वार्ता में सभी यूनियनों ने हिस्सा लिया. वार्ता में हुई प्रगति सब के सामने है. वार्ता आगे जारी रहेगी, ऐसा तय भी है. 20.9.19 का धरना धराशाई हो गया.
एक तरफ वार्ता का दौर जारी है और दूसरी तरफ कोई वेतन वृद्धि को लेकर तो कोई बैंकों के विलय के नाम पर हड़ताल की होड़ में है. ये आन्दोलन खुद को सही साबित करने की होड़ का नतीजा भर हैं. इससे न अधिकारी, न कर्मचारी, व बैंकों और न देश का भला होने वाला है. कुल मिलाकर एक बुरी छवि का निर्माण हो रहा है. मजे की बात यह है कि यूनियनों के नेताओं को एहसास तक नहीं है कि उनके सदस्यों के मन में उनके प्रति कितना रोष और गुस्सा है, उनकी विश्वसनीयता धरातल पर आ गिरी है और अब बैंक कर्मीं उन्हें हिकारत की नजर से देखते हैं.
बात साफ होनी चाहिए. जब वेतन वार्ता जारी है और प्रगति पर है तो इस विषय पर हड़ताल का क्या औचित्य?
मर्जर एक यथार्थ है, जरूरत है, शुरू में ही न करने का खामियाजा भुगता जा रहा है. न्यू बैंक आफ इंडिया का मर्जर यूनियन की मांग का परिणाम था. स्टेट बैंक की सात व भारतीय महिला बैंक का स्टेट बैंक में विलय हुआ. देना बैंक और विजया बैंक का बैंक आफ बड़ौदा में विलय हुआ. हड़तालें रशमी तौर पर हुईं, पर विलय हुआ. कम से कम अब तो इस बात को मान लेना चाहिए कि बैंकों का विलय अपरिहार्य है और हम इसे रोक नहीं सकते, तो हठधर्मी को पाले हमारे नेता खूंटे में डाल कर अपनी क्यों फाड़ने पर आमादा हैं?
बैंकों का विलय कोई आसमान गिरने जैसा तो है नहीं. ग्रामीण बैंकों का 196 से 56 और अब 35 तक करने की योजना है. उसका विरोध तो हुआ नहीं! विलय से कुछ नेताओं के भविष्य का सवाल जरूर है, पर क्या नेताओं का हित बैंकों के हित से बड़ा है? नेताओं का हित कर्मचारियों/ अधिकारियों के हित से बड़ा है?
सबसे बड़ा सवाल: बैंकों को बचाने, उन्हें मजबूत करने और परिचालन योग्य बनाये रखने का रास्ता क्या है? नेता तो आते जाते रहेंगे, लेकिन बैंकों का बने रहना जरूरी है. हड़ताल ये हो या वो हो, अप्रासंगिक है और इससे बचना चाहिए. मुद्दा वेतन, पेंशन, सेवा शर्तों के सुधार का है. यूनियनों को तूं बड़ा कि मैं बड़ा से बचना चाहिए. एक गलत कर रहा है तो मैं भी गलत करूं, यह ठीक नहीं. दो गलती कभी एक ठीक नहीं होती.
बैंकों का विलय लंबे समय से स्वार्थ की लड़ाई का शिकार रहा है. सरकार का यह कदम देश हित में है, बैंक कर्मियों के हित में है, बैंकों के हित में है. नेता बेवजह लोगों को भड़का रहे हैं, मुद्दे से ध्यान हटाने का काम कर रहे हैं, इससे उन्हें बचना चाहिए. उन्हें वेतन, सेवा शर्तों के सुधार पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए. पेंशन पुनरीक्षण , जो आज तक एक बार भी नहीं हुआ है, उसे करने का काम करना चाहिए. इससे एक अच्छा वातावरण बनेगा. बेहतर होगा कि यूनियनें बैंकिंग को रणक्षेत्र न बनायें, यही सबके हित में होगा.
जे एन शुक्ला
प्रयागराज
22.9.2019
==============================
To
UFBU & CONSTITUENTS
Dear Friends,
Why do you want 5 days Working?
1. Will it not increase working hours on rest 5 days & cause more stress on workforce?
2. Is there no other alternative that may not increase working hours and add more leisure?
3. Don't you feel & find at grass root level that workforce is much more compressed of work burden, sit late and late sitting compensation is just in service book?
4. What's your study & report say, of course that you people don't make it, about working environment, whether friendly, cohesive, stressful or foesome in relation to workforce?
However, I think you must have thought of it- 5 days working- and its fall out on workforce, banking industry and customers. Having considered all aspects this demand it raised.
But, I differ and say as under:
1. Need is not to increase any working hours. It's already long & stressful.
2. Need is to have 6 days normal banking. Better spread of work pressure, and customers' banking needs must be ensured.
3. Need is to put a lid on working hour beyond fixed working hours.
4. Need is to ensure payment of over time. Log out time should automatically generate late sitting. It is possible.
5. As against 5 days working demand that shall, if agreed, give say 24 days off annually, but at cost of increase in working hours, you should demand some increase in Casual & Privilege Leave. You may demand some Special leave that people can enjoy in case of no PL/ CL.
Even if you achieve 8/10 days on this count, without any increase in existing hours of work, that will be quite big improvement to ease working.
I don't know, how it is viewed and a solution is found out, if at all the demand is raised with sincere motive.
Greetings
(J. N. Shukla)
National Convenor
Forum of Bank Pensioner Activists
PRAYAGRAJ
17.9.2019
Please translate Hindi messages in English for benefit of South Indian people
ReplyDelete