Saturday, April 13, 2019

कोशिश करने वालों कि कभी हार नहीं होती.

कोशिश करने वालों कि
कभी हार नहीं होती...
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती.....
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कोशिशें कभी असफल नहीं होतीं. असफलता तो मन की दुर्बलता का द्योतक है, जो हार मान कर, कोशिश  करना ही बंद कर देता है.

बैंक पेंशनर्स, आपरेटिंग यूनियंस- यूयफबीयू- की विश्वास की किश्ती पर सवार होकर आश्वस्त था कि, पेंशन बैंककर्मियों की सेवा नियमावली का अभिन्न अंग है, केन्द्रीय पेंशन नीति की प्रतिकृति है, जो वेतन आयोग की शिफारिशों के आलोक में पुनरीक्षित होती रहती है, देर-सबेर बैंक पेंशन का भी पुनरीक्षण  होगा.

पेंशनर्स का  इस तरह का आश्वस्त होना कोई गलत नहीं था, क्योंकि बैंक पेंशन नीति का अस्तित्व में आना संगठनों के लंबे संघर्ष का परिणाम था.और, ऐसे में, पेंशन का पुनरीक्षण करना तथा उसे जीवंत बनाये रखना यूनियनों का उत्तरदायित्व था. यदि एक द्विपक्षीय वेतन समझौता पांच वर्ष बाद अप्रासंगिक हो जाता है, तो पेंशन का 1987 से यथावत बने रहने का औचित्य क्या हो सकता है? बैंक पेंशन समझौता, पे कमीशन, 1986 पर आधारित था. इसके बाद 1996, 2006 एवं 2016 के पे कमीशन की संस्तुतियों के आलोक में केन्द्रीय पेंशन नियम में अनेकानेक सुधार हुये. पेंशन समझौते के बाद, बैंककर्मियों के वेतन एवं सेवा-शर्तों को लेकर हर पांच साल के अंतराल में समझौते होते रहे, लेकिन पेंशन पनरीक्षण की कौन कहे, यूनियनों ने पेंशन कटौती के समझौते जरूर किये.

10वें वेतन पुनरीक्षण  वार्ता के दौरान, रिटायरी यूनियनों के प्रतिवेदन पर कदम उठाते हुए, तत्कालीन सरकार ने भारतीय बैंक संघ को निर्देशित किया था कि पेंशनर्स की मांगों पर, पेंशनर यूनियनों से बात करे. इस स्थिति से बचने की व्यूह रचना यूयफबीयू-आईबीए ने की. यह घोषणा की गई कि 10वां समझौता पेंशनर्स की मांगों के साथ होगा. इस विषय पर जो कुछ भी उस समय कहा गया, वह प्रलाप के शिवा कुछ नहीं था, रिटायरी यूनियनों को चुप करने का षणयंत्र था. सभी को ज्ञात है, किस तरह अंत में पेंशन रिवीजन की बुनियाद को ही नकार दिया गया और एक ऐसे दस्तावेज पर सभी यूनियनों ने हस्ताक्षर किये जिसमें पेंशनरों और उनके बैंक के बीच किसी अनुबंध की बात न होने की बात लिखी गई थी. ज्वाइंट नोट्स, 25.5.2015, पेंशनर्स-बैंक के रिस्ते का मृत्यु प्रमाणपत्र है.

रिटायरी यूनियनों ने इसे विश्वास घात कहा, पीठ में खंजर घोपना कहा. कहने- सुनने को कुछ बचा नहीं था. जो होना था वह सभी नौ यूनियनों की सहमति से हुआ. किसी ने कम तो किसी ने ज्यादा विरोध किया या कोई चुप रह कर अपनी नपुंसकता का परिचय दिया होगा. दृश्य द्रोपदी चीर हरण जैसा था जहां सभी रथी-महारथी थे. पर, इस प्रकरण  में दुर्योधन कौन था, अभी तक पता नहीं चल सका है. यूयफबीयू में तकरार है. एक बड़ी यूनियन वही बात दोहरा रही है जो पिछली बार एक अन्य बड़ी यूनियन ने कहा था कि वह पेंशन रिवीजन के बिना समझौता नहीं करेगी, पर बताने से कतरा रही है कि पिछली बार दुर्योधन की भूमिका में कौन था. आश्वासन तो बस आश्वासन है, जब तक वह कागज पर न आजाये!

इससे घोर निराशा, हताशा और अविश्वास का वातावरण बना. इसका गहरा असर आपरेटिंग यूनियनों की विश्वसनीयता पर भी पड़ना लाज़मी  था और हुआ भी है. कोई भी कार्यरत कर्मचारी हो या अधिकारी, अपनी यूनियन को लेकर क्षुब्ध है, आक्रोशित है. वेतन एवं सेवा शर्तों में बड़ी गिरावट की पीड़ा से हर कोई दुखी और निराश है. काम का बोझ और जिम्मेदारियों का दबाव पूरी वर्कफोर्स को हिला रखा है. यूनियनें इस हकीकत की अनदेखी करती रही हैं और आज मैनेजमेंट से कहीं ज्यादा खौफ यूनियन नेताओं का है. ऐसा नहीं है कि इसका इजहार नहीं हो रहा है. सोसल मीडिया पर जो तश्वीर है वह यूनियन नेताओं की कार्यप्रणाली, ईमानदारी, विश्वसनीयता पर सीधा सवाल खड़ा करती दिखतीं है.

बहरहाल, मई 2015 के 10वें समझौते के बाद, रिटायरी यूनियनों का भरम तो टूटा, पर वे और भटकाव की तरफ बढ़ गये, जिसकी उम्मीद नहीं थी. उन्होंने कोई प्रतिवाद न बैंक मैनेजमेंट, न सरकार और न ही आपरेटिंग यूनियनों के खिलाफ खड़ा किया. ऐसा विश्वास करने के पुख्ता कारण है कि 10वें समझौते में पेंशन को लेकर  जो कुछ हुआ वह रिटियरी यूनियनों की सहमति से हुआ, क्योंकि पेंशनर यूनियनें कहीं भी इसका विरोध, प्रतिरोध करती नहीं दिखतीं !

इसके बाद, पेंशनर्स के अनेकानेक ग्रुप, निजी और सामूहिक तौर पर फ्रंट पर आते हैं और उन्होंने विगत तीन वर्षो में अपने अनवरत प्रयासों से पेंशन/ पारिवारिक पेंशन पुनरीक्षण मामले को एक ज्वलंत मुद्दा स्थापित करने का अद्भुत और अकल्पनीय कार्य किया है. काश! ऐसा कार्य रिटायरी यूनियनों ने किया होता, जो उनका दायित्व और कर्तव्य था और वित्तीय संसाधन के स्तर पर भी वे सक्षम थी, तो इस मामले में और आगे बढ़ा जा सकता था. इस दौरान माननीय प्रधानमंत्री, लोक सभा/ राज्य सभा अध्यक्षों, केन्द्रीय वित्त मंत्री, वित्त सचिव, महामहिम राज्यपालों, केन्द्रीय मंत्रियों, माननीय सांसदों, विभिन्न राजनीति दलों, भारती बैंक संघ के कार्यपालकों को हजारों हजार प्रतिवेदनों, ज्ञापनों, पत्रों को पेंशनरों तथा उनके समूहों ने भेज कर बैंक पेंशनर्स की मांगों को बल प्रदान किया है. अगर यह कहा जाये कि ऐसे प्रयासों ने सरकार, भारतीय बैंक संघ एवं बैंकों के कार्यपालकों की नांक में धुआं कर दिया, तो गलत नहीं होगा.  धुआं तो आपरेटिंग यूनियनों की नांक में भी हुआ है, जो अब पेंशन/ फेमिली पेंशन रिवीजन की बात करने लगे हैं. जनवरी, फरवरी और मार्च 2019 के घटनाक्रमों की गहन विवेचना के पश्चात दिखता है कि जिम्मेदार हलकों के लोग पेंशन को एक ज्वलंत मुद्दा मानने लगे हैं. इस स्थिति का श्रेय पेंसनरों के निजी और सामूहिक प्रयासों को जाता है. रिटायरी यूनियनें तो इस महान काम में दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रहीं हैं.

इस विषय में और अंदर जाने पर पता चलता है कि रिजर्व बैंक पेंशन रिवीजन को हरी झंठी देने के पूर्व सरकार ने मन बना लिया है कि उसे ऐसी किसी 'अन्य' परिस्थिति में क्या कदम उठाना है. जीआईसी को पेंशन का दूसरा विकल्प देने तथा रिजर्व बैंक की पेंशन पुनरीक्षण को स्वीकृत करने के अनुक्रम में सार्वजनिक बैंकों के कर्मचारियों की पेंशन पुनरीक्षण की मांग पर क्या निर्णय लेना है, सरकार ने तय कर रखा है और समझा जाता है कि सरकार की मंशा का आभाष भी जिम्मेदार लोगों को करा दिया गया है.

विगत तीन महीनों में यूनियन नेताओं और भारतीय बैंक संघ के कार्यपालकों के बोल-चाल, बाडी लैंग्वेज तथा बयानों में आये बदलाव इसी आलोक में देखे जा सकते हैं.

चुनाव के कारण संपूर्ण प्रक्रिया अवरुद्ध है. कुछ गतिरोध भी है. उम्मीद है, यूनियनों के स्तर पर जारी गतिरोध शीघ्र समाप्त होगा. चूंकि पेंशन एक कामन इसू है, इस पर अब बिलेन की भूमिका का शायद कोई जुर्रत न करे.  10वें समझौते में पेंशन को लेकर बने दुर्योधन का पता चले या न चले, लेकिन इस बार कोई दुर्योधन नहीं था, इस बात का पता पेंशन पुनरीक्षण होते ही सब को हो जायेगा.

परिस्थतियां, फिलहाल, यही कह रही हैं कि नई सरकार के गठन के बाद बैंककर्मियों के वेतन, पेंशन तथा सेवा शर्तों को यथाशीघ्र तय कर दिया जायेगा.

कोशिश सतत् चलने वाली पहल है, जो किसी न किसी रुप में जारी रहनी चाहिए. पेंशनर एक्टिविस्टों की एक निजी और सामूहिक विशाल सेना इस संग्राम में लगी हुई है. कोर्ट, अदालत और सड़क हर जगह कोई न कोई ईमानदारी से लड़ रहा है, वह भी अपने बल पर, अपने संसाधन से. बैंकिंग जैसे संगठित उद्योग में, जहां देश की सबसे मजबूत यूनियनें हैं,  क्षमतावान नेतृत्व, समर्पित यूनियन कार्यकर्ता और सदस्य हैं, पेंशनरों के साथ ऐसा सुलूक बेहद शर्मिंदा का विषय है. पेंशनरों का वर्तमान ही कार्यरत लोगों का कल है. हो सकता है, कार्यरत लोग हम पेंशनरों का जीवन जीना चाहते हों, तभी तो उवकी यूनियनें पेंशन सुधार की अनदेखी करती हैं और वे चुप रहते हैं...

- जे.एन.शुक्ला,
प्रयागराज, 41418

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