Friday, December 7, 2018

Truth Of Life. जीवन की खोज

जीवन की खोज

महाराष्ट्र में एक साधु था, एकनाथ। उसके पास एक व्यक्ति बहुत दिनों तक आया। और उस व्यक्ति ने अनेक दफा एकनाथ से बहुत से प्रश्न पूछे। एक बार उसने एक अजीब बात एकनाथ से पूछी, सुबह ही थी और एकनाथ अपने मंदिर में बैठे हुए थे। उस युवक ने आकर पूछा कि मैं आपको जानता हूं, बहुत दिन से जानता हूं और आपको जान कर मुझे कई तरह के विचार मन में उठते हैं, कई प्रश्न उठते हैं। एक प्रश्न मैं हमेशा छिपा लेता हूं, पूछता नहीं हूं, वह मैं आज पूछना चाहता हूं। एकनाथ ने कहा क्या है पूछो? उस युवा ने कहा कि मैं पूछना चाहता हूं, आपका बाहर से तो जीवन एकदम पवित्र है, लेकिन भीतर भी पवित्रता है या नहीं? आप बाहर से तो एकदम ही ईश्वरीय मालूम होते हैं, दिव्य मालूम होते हैं, लेकिन भीतर क्या है? मैं भीतर के संबंध में कुछ पूछना चाहता हूं? भीतर आपके पाप उठते हैं या नहीं? भीतर आपके बुराइयां पैदा होती हैं या नहीं? भीतर आपके विकार उठते हैं या नहीं?

एकनाथ ने कहा कि मैं अभी-अभी बताता हूं, एक और जरूरी बात तुम्हें बता दूं, कहीं मुझे भूल न जाए। कल अचानक मैंने तुम्हारा हाथ देखा तो मुझे दिखाई पड़ा कि तुम्हारी मृत्यु करीब आ गई है। सात दिन बाद तुम मर जाओगे तो यह मैं तुम्हें बता दूं और फिर तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूं, क्योंकि कहीं मुझे भूल न जाए, इसलिए मैं जल्दी बता दूं। एकनाथ ने कहा कि अब पूछो तुम क्या पूछते हो? वह युवक बैठा था खड़ा हो गया। उसने कहा कि मौका मिला तो मैं कल आऊंगा। उसके हाथ पैर कंपने लगे। एकनाथ ने पूछा इतनी जल्दी क्या है, सात दिन हैं, बहुत हैं, इतनी घबड़ाहट क्या है? और मरना तो सभी को पड़ता है। लेकिन वह युवक अब एकनाथ की बातें नहीं सुन रहा था। उसने पीठ फेर ली और वह मंदिर के नीचे उतरने लगा। अभी जब आया था तो पैरों में एक बल था, एक शक्ति थी, एक सामथ्र्य था। अब जब लौट रहा था तो दीवाल का सहारा लिए हुए था। जिसकी मौत सात दिन बात हो, वह बूढ़ा हो ही गया। उसके पैर कंपने लगे सीढ़ियों पर, वह रास्ते पर जाकर गिर पड़ा। बेहोश हो गया, लोगों ने उसे उठाया और घर पहुंचाया। उसके प्रियजन और उसके मित्र इकट्ठे हो गए, सब तरफ खबर फैल गई कि वह आदमी अब मरने के करीब है। सात दिन बात उसकी मृत्यु आ जाएगी।

सातवें दिन संध्या को जब सूरज डूबने को था और सारे घर के लोग रो रहे थे, पड़ोसी इकट्ठे थे और वह युवा बिस्तर पर लेटा हुआ था। एकनाथ उसके घर गए। वे जब अंदर पहुंचे तो वहां मौत का पूरा का पूरा वातावरण था। सारे लोग उनको देख कर रोने लगे। एकनाथ ने कहाः रोओ मत। मुझे जरा अंदर ले चलो। वे भीतर गए और उस व्यक्ति को उन्होंने हिला कर पूछा कि मेरे मित्र, एक बात पूछने आया हूं, सात दिन कोई पाप तुम्हारे भीतर उठा? कोई बुराई, कोई विकार। उस आदमी ने बहुत मुश्किल से आंखें खोलीं और उसने कहा कि आप भी एक मरते हुए आदमी से मजाक करते हैं। तो एकनाथ ने कहाः तुमने भी एक मरते हुए आदमी से मजाक किया था। एकनाथ ने कहा तुम्हारी मौत अभी नहीं आई है, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है।

जिसे मौत दिखाई पड़ने लगे, उसके भीतर पाप उठने अपने आप विलीन हो जाते हैं। विकार शून्य हो जाते हैं। और जिसे मौत दिखाई पड़ने लगे, उसके भीतर एक क्रांति हो जाती है। उसकी संसार के प्रति पीठ हो जाती है। और परमात्मा की तरफ उसका मुंह हो जाता है। एकनाथ ने कहाः तुम्हारी मौत अभी आई नहीं, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है। तुम उठ आओ, घबड़ाओ मत। और एकनाथ ने कहा कि सात दिन बाद मौत हो, या सात वर्ष बाद, या सत्तर वर्ष बाद, क्या फर्क पड़ता है? मौत का होना ही पर्याप्त है, दिनों की गिनती से कोई फर्क नहीं पड़ता है। या कि कोई फर्क पड़ता है? सात दिन बात मौत हो, या सत्तर दिन बाद, क्या फर्क पड़ता है? मौत का होना ही अर्थपूर्ण है। दिनों की गिनती कोई अर्थ नहीं रखती। एकनाथ ने कहाः मृत्यु है, जिस दिन यह मुझे पता चला, उसी दिन जीवन में क्रांति हो गई। उसी दिन मैं दूसरा आदमी हो गया।

जीवन को सामान्य रुप में ही लें क्योंकि जीवन में रहस्य नहीं हैं जिन्हें आप सुलझाते फिरें।
चिंता इतनी कीजिए की काम हो जाए
                        पर
     इतनी नही की jindagi तमाम हो जाए

*आगे चल कर एक दिन हम सब की यही स्थिति होनी है इसलिए चिंता, टेंशन छोड़ कर मस्त रहें स्वस्थ रहें।*

*यही जीवन है और इसकी सच्चाई भी।*

        आप का जीवन सुखी
                    और
         समय अनुकूल हो।

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गृहस्थ बनूँ या साधु ?

एक व्यक्ति कबीर के पास गया और बोला- मेरी शिक्षा तो समाप्त हो गई। अब मेरे मन में दो बातें आती हैं, एक  यह कि विवाह करके गृहस्थ जीवन यापन करूँ या संन्यास  धारण करूँ? इन दोनों में से मेरे लिए क्या अच्छा रहेगा यह बताइए?

कबीर ने कहा दोनों ही बातें अच्छी है जो भी करना हो,वह सोच-समझकर करो,और वह उच्चकोटि का हो। उस व्यक्ति ने पूछा उच्चकोटि का करना चाहिए। उस व्यक्ति ने पूछा उच्चकोटि का कैसे है? कबीर ने कहा- किसी दिन प्रत्यक्ष देखकर बतायेंगे वह व्यक्ति रोज उत्तर प्रतीक्षा में कबीर के पास आने लगा।

एक दिन कबीर दिन के बारह बजे सूत बुन रहे थे। खुली जगह में प्रकाश काफी था कबीर साहेब ने अपनी धर्म पत्नी को दीपक लाने का आदेश दिया। वह तुरन्त बिना किसी सवाल के जलाकर लाई और उनके पास रख गई। दीपक जलता रहा वे सूत बुनते रहे।

 सायंकाल को उस व्यक्ति को लेकर कबीर एक पहाड़ी पर गए। जहाँ काफी ऊँचाई पर एक बहुत वृद्ध साधु कुटी बनाकर रहते थे। कबीर ने साधु को आवाज दी। महाराज आपसे कुछ जरूरी काम है कृपया नीचे आइए। बूढ़ा बीमार साधु मुश्किल से इतनी ऊँचाई से उतर कर नीचे आया। कबीर ने पूछा आपकी आयु कितनी है यह जानने के लिए  नीचे बुलाया है। साधु ने कहा अस्सी बरस। यह कह कर वह फिर से ऊपर चढ़ा। बड़ी कठिनाई से कुटी में पहुँचा। कबीर ने फिर आवाज दी और नीचे बुलाया। साधु फिर आया। उससे पूछा- आप यहाँ पर कितने दिन से निवास करते हैं? उसने बताया चालिस वर्ष से। फिर जब वह कुटी में पहुँचे तो तीसरी बार फिर उन्हें इसी प्रकार बुलाया और  पूछा- आपके सब दाँत उखड़ गए या नहीं? उसने उत्तर दिया। आधे उखड़ गए। तीसरी बार उत्तर देकर वह ऊपर जाने लगा तब इतने चढ़ने उतरने से साधु की साँस फूलने लगी, पाँव काँपने लगे। वह बहुत अधिक थक गया था फिर भी उसे क्रोध तनिक भी न था।

अब कबीर अपने साथी समेत घर लौटे तो साथी ने अपने प्रश्न का उत्तर पूछा। उसने कहा तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में यह दोनों घटनायें उपस्थित है। यदि गृहस्थ बनना हो तो ऐसे जीवनसाथी का चयन करना चाहिये जो हम पर पूरा भरोसा रखे और हमारा कहना सहजता से मानें, कि उसे दिन में भी दीपक जलाने की मेरी आज्ञा अनुचित नहीं मालूम पड़ी ,उसनें व्यर्थ कुतर्क नहीं किया और साधु बनना हो तो ऐसा बनना चाहिए कि कोई कितना ही परेशान करे क्रोध व शोक न हो,हम सहज रहें।

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           07-12-2018
         आचार्य चाणक्य ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही है जब तक तुम दौड़ने का साहस ना जुटाओगे तुम्हारे लिए जीतना बड़ा मुश्किल होगा। साहसी और प्रयोगधर्मी व्यक्ति को ही जीवन में बहुत कुछ मिला करता है।
         संसार में बहुत लोग असफल हो जाने के डर से प्रतिस्पर्धा में नही पड़ते। यह कहना कि प्रभु ने जो दिया है मै उसमें सन्तुष्ट हूँ। यह संतोष नहीं कमजोरी है, भय है, नकारात्मक संतोष है। अपने आप को विकसित करने से रोक देने जैसा है, फूल को खिलने से रोक देने जैसा है।
         मेहनत और कर्म करने में पूरे असंतोषी रहो। प्रयास की सात्विक अंतिम सीमाओं तक पहुँचो। कर्म के बाद जितना मिले, जैसा मिले, जब मिले, जहाँ मिले उसमें संतोष रखो और प्रभु पर भरोसा रखो।
         कर्म जरूर करते रहो, जीवन में नए रास्ते घर बैठे नहीं मिलेंगे वो कर्म करते-करते नजर आयेंगे। भगवान् को कर्मशील भक्त ही प्रिय हैं।



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