अच्छा होगा सभी पढ़ें, समझें और साझा करें:
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तीन बैंकों के विलय को लेकर तरह-तरह के सवाल एवं संकायें पैदा की जा रहीं है, जैसे कोई पहली बार कुछ वो हो रहा है, जो कभी हुआ ही न हो। ज्यादा न सही पर कलकत्ता बैंक से इंपीरियल बैंक और इंपीरियल बैंक से स्टेट बैंक आफ इंडिया के बनने, बदलने और हजारों की संख्या में निजी बैंकों के डूबने, विलय, अधिग्रहण का इतिहास सामने है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद तीन दर्जन निजी बैंको के पराभव व सार्वजनिक बैंकों में उनके विलय की कहानी कोई ज्यादा पुरानी नहीं है।
राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों का पुनर्गठन बैंक यूनियन के पितामह प्रभातकार का सपना था, उनका आंदोलन था। न्यू बैंक का विलय उसी की देन थी। 196 ग्रामीण बैंकों की दुर्दशा के आलोक में उन्हे विलय कर 56 बैंकों की सफलता की हकीकत सामने है और अब 56 को 36 करने की योजना हाथ में है। एक भी ऐसा विलय/अधिग्रहण ऐसा नहीं है जो असफल रहा हो। स्टेट बैंक में पहले दो और पिछले वर्ष 5 सहायक बैंकों के विलय का मामला नया है।
बैंकों का इस तरह इतनी संख्या में बने रहना घातक साबित हुआ है। फिर भी कतिपय निहित स्वार्थों के कारण बैंक विलय एक विरोध का मामला बना ही रहता है। सार्वजनिक बैंकों की समृद्धि और सफलता में विलय का विरोध एक रोड़ा है। इस बात को मानते हुए ऐसी शक्तियों का पर्दाफाश किया जाना जरूरी है जो छद्मवेश में बैंकों की मजबूती के आड़े आ रहे हैं।
नीचे कुछ तारांकित सवाल मीडिया में तबीयत से फेके गये है। इन सवालों के जवाब भी दिये गये हैं। जरुरत सही बात के समर्थन का है। हमें एक मजबूत सार्वजनिक बैंकिग व्यवस्था की दरकार है और हम इसे बनाये रखने के लिए कोई भी कर्बानी देने को ततँपर हैं, पर इस तरह के रवैये को कतई बरदास्त नहीं कर सकते।
* 1. इन बैंकों की कई शाखाएं बंद हो जाएंगी.
शाखाओं का सुसंगतिकरण होगा. एक ही मुहल्ले या एक ही भवन में दो शाखाओं का कोई औचित्य नहीं बनता। अभी ऐसा कहीं कहीं है। यह होगा। पर ऐसी स्थिति कितनी होगी? यह कोई सवाल ही नहीं है। इसके पहले बैंक स्तर पर हजारों स्वैपिंग हो चुकी है।
* 2. कर्मचारी को बड़े पैमाने पर स्थानांतरित किया जाएगा.
ऐसा कोई जरुरी नहीं. शाखाओं के सुसंगतिकरण से कर्मचारियों को आस-पास की शाखाओं में भेजा जा सकता है। स्टेट बैंक ने सहायक बैंकों के मर्जर पर वरीयता के आधार पर तीन शाखाओं का च्वायस मांगा था। पहला प्रयास था कि बेजरूरत स्थानांतरण न हो और यदि जरूरी हो तो च्वाइस का ध्यान रखा जाये। वहां ऐसी कोई समस्या नहीं देखी गई। जबकि वह बड़ा मर्जर था। 5 बैंकें सामिल थी। फिर तीनों बैंकों में कर्मचारियों की कमी है। तीनों बैंकों में रिटायर होने वालों की बड़ी संख्या है। ऐसे में ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है जो चिंता का गंभीर विषय हो।
* 3. नए बैंक में पदोन्नति / रिक्तियों में कमी होगी.
बैंक के व्यवसाय से पद, पदोन्नति का निर्धारण होता है। ऐसे में कोई व्यवसाय तो घटने/टूटने वाला नहीं है। यह काल्पनिक है। फिर, हर वर्ग में रिटायरमेंट होगा। पद और पदोन्नति व्यवसायिक मानदंडों पर तय होता है और तीन बैंकों के एक साथ होने से व्यवसाय में बढ़ोत्तरी होना तय है।
* 4. प्रक्रिया में नई इकाई को व्यवस्थित करने और कार्य को सुगम बनाने में सालों लगेंगे, जिसके परिणामस्वरूप ग्राहक सेवा पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। अंततः निजी बैंकों द्वारा अच्छे व्यापार को दूर किया जाएगा।
यह काल्पनिक कथावस्तु है। ग्राहक सेवा या अच्छे व्यापार को नुकसान की बात एक निराधार परिकल्पना है। बात वही खींचने की है। एक फेहरिस्त तैयार करना है, तो जरुरी-गैरजरूरी सब को ठूंस दो। यह सवाल एक और सवाल ठूसने जैसा है।
* 5. कर्मचारियों के फोकस को निपटाने पर स्थानांतरित कर दिया जाएगा। इसलिए, वसूली की प्रक्रिया बुरी तरह प्रभावित होगी। परिणाम, घाटे को चौड़ा करना
यह क्यों नहीं कि अमालँगमेशन से वसूली प्रकृया को मजबूती मिलेगी? सकारात्मक पहलुओं पर जोर देने के बजाय नकारात्मक का चित्रण अजीब है। भय और दहसत पैदा करने का प्रयास है।
* 6. बढ़ते नुकसान से उन्हें बैंकरों को गैर कलाकारों के रूप में घोषित करने में मदद मिलेगी और इच्छा निजी संस्थाओं को हिस्सेदारी कम कर देगी
यह कौन सी भाषा में लिखा गया है, अभिप्राय क्या है समझ के परे है। कलाकार कहां से आ गया। किसकी हिस्सेदारी कम होने की बात हो रही है? बरगलाने का कोरा प्रयास है। स्पष्ट ही नहीं है कि महोदय क्या कहना चाहते हैं?
* 7. देना बैंक और विजया बैंक के कर्मचारियों को बैंक ऑफ बड़ौदा के बराबर नहीं माना जाएगा जैसा कि एसबीआई में देखा जा सकता है
स्टेट बैंक में क्या देखा जा रहा है? देखना है तो ठीक से देखो। वहां यूनियनों का टकराव है। वहां एकमात्र यूनियन है। एआईबीईए पांच बैंकों में थी। अब कुछ तो टशल हो सकती है। अधिकार सब के बराबर हैं और सब को वे लाभ मिल रहे हैं जो बेस्ट हैं और स्टेट बैंक कर्मियों को मिल रहे हैं। इंटरयूनियन खींचतान किस बैंक में नहीं है?
* 8. आउटसोर्सिंग में वृद्धि होगी।
जो आउट सोर्सिंग हो रही है उसे किस बैंक ने रोका? देना बैंक में सालों से हजारों चपरासी अस्थायी रूप में काम कर रहे हैं। यूनियनों ने इस पर क्या किया? 240 दिन काम करने पर कभी नियमितीकरण को लड़ कर हासिल किया जाता था। आज तो वर्षों से टेम्परेरी चल रहे हैं. क्या किया यूनियनो ने?
* 9. सरकार का यह कार्य निजी योजनाओं को सार्वजनिक संसाधनों को सौंपने के लिए अपनी योजना का हिस्सा है और आगे बढ़ता है।
अगर निजी योजनाओं को सरकार बैंकों को देना चाहती है तो अभी कौन सा प्रतिबंध है? बैंकें निजी योजनाओं का वित्तपोषण तो कर ही रही हैं।
* 10. और निश्चित रूप से, हमारी नौकरियां भी हिस्सेदारी पर हैं।
यह क्या है? अनुबाद की यही समस्या है। कुछ भी लिख दो। हमारी नौकरियां किसकी हिस्सेदारी में हैं? क्या हम बैंक की सेवा से बाहर हो रहे हैं। सरकार अपना स्वामित्व खतम कर रही है? बंद करो बकवास भाई। कोई भी सरकार बैंकों को अपने हाथ से नहीं छोड़ेगी। निजीकरण पर रोटियां सेकना बंद करो। यह ठगी है।
* 11. बस इस तरह, अचानक वे एक और विलय की घोषणा करेंगे और जब तक वे धन को निजी हाथों में स्थानांतरित करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं करेंगे तब तक चलेंगे।
विलय कोई मालिकाना हक ट्रांसफर करना है क्या? भला बैंकों का धन ऐसे ही निजी हाथों में कैसे चला जायेगा? इसके पहले भी अनेक विलय हुऐ हैं तो क्या वहां का धन गायब हो गया?
* 12. यह सरकार गरीबों की आय में वृद्धि करके मध्यम वर्ग की आय को कम करके आय असमानता को कम करने की योजना बना रही है।
किसी कर्मचारी का वेतन घटाया गया क्या? गरीबों की आय अगर बढ़ रही है तो इसमें क्या बुराई है। मजदूर की मजदूरी पर यह कैसा नजरिया है। मध्यम वर्ग तो हर तरह से आगे बढ़ रहा है। मजदूरों को भी बढ़ने दो। इससे बैंक मर्जर का क्या लेना देना?
* 13. डू-या-डाई की स्थिति हमारे सिर पर है।
कभी डू आर डाई किया क्या। जायज मांगों पर तो अल्म्यूनियम के बर्तन की तरह पिचके हो और डू आर डाई की मुनादी कर रहे हो। शर्म नहीं आ रही है कि 30 वर्षों सें पेंशनर्स आर्थिक संकट में जी रहे हैं। ये वे लोग हैं जिन्होने पेंशन के लिए लड़ा था और वही यूनियनें पेंशनरों को खून के आंसू रुला रही हैं। घंटा सर पर है.
* 14. हमारा वेतन, नौकरी सुरक्षा, सार्वजनिक संसाधन सब कुछ हड़ताल पर है।
मुंगेरी लाल के सपने देखने में हर्ज क्या है? तो बता भाई क्या करें ? बिल में घुस जायें? या, हाराकीरी खर लें? डरवा किसको रहे हो? कुछ करने की अहैसियत तो है नहीं और बकवास पर बकवास किये जा रहे हो।
*15. तैयार रहो। अंत तक लड़ने के लिए गियर करें। विलय के दुष्प्रभावों और तुरंत हिस्सेदारी को कम करने के बारे में जनता के बीच जागरूकता पैदा करना शुरू करें। सार्वजनिक हितों के साथ-साथ हमारे भविष्य की सुरक्षित सुरक्षा के लिए सार्वजनिक सहायता की आवश्यकता है।
सार्वजनिक हित सुरक्षित है और सभी कर्मचारी अधिकारी सुरक्षित हैं। वेतन की बात करो। दो दिन की हड़ताल करवा चुके हो। दो कौड़ी ( 2% वृद्धि का आफर पढ़ें) की औकात के आगे बताओ क्या कर रहे हो? हां, बाप-दादों का क्या कर रहे हो, अर्थात पेंशनर्स का? पेंशन न बढ़वा सको तो श्राद्ध पक्ष आ गया है उनका अर्पण-तर्पण कर दो। नालायक औलादों से और क्या उम्मीद की जा सकती है।
ऐसी दुर्दशा किसी भी विभाग के कर्मचारियों/अधिकारियों ने अपने पूर्व साथियों के साथ नहीं किया होगा, जैसा बैंकों के कर्मचारी/अधिकारी और उनकी यूनियनें बैंक पेंशनर्स के साथ कर रही हैं। ये कैसी ट्रेड युनियनें हैं? मजदूर एकता की दुहाई देते नेता सदस्यों का खून चूसने में संकोच नहीं करते। लाल सलाम कहने वाले अपने ही लोगों को दुलत्ती लगा रहे हैं
जो लोग बैंकों में अभी काम कर रहे हैं उन्हे अपना भावी हस्र वर्तमान पेंशनर्स में देख लेना चाहिए। कल उनके साथ यही सुलूक होनेवाला है। आज के गालों की सुर्खियां कल झुर्रियों में तब्दील हो जायेंगी। कल को गिरवी रख कर आज जो तुम्हे हासिल कराया जा रहा है उसका एहसास होना चाहिए। पे सुधरनी चाहिए तो पेंशन क्यों नहीं? साहस करो और अपने रहनुमाओं से सवाल करो। वे कोई भाग्य विधाता नहीं। वे तुम्हारे टुकड़ो (चंदा/लेवी पढ़ो) पर पलने वाले है। एक कुत्ता भी मालिक के प्रति वफादारी करता है। लेकिन ये लाल ब्रीड के हैं। इनका वजूद मजदूरों को चूसने पर कायम है।
एक बेहद खराब दौर है। हम कहीं के नहीं रह गये हैं। बैंकवालों के साथ विश्वासघात पर विश्वासघात हो रहा है और इस अपराध में हमारी यूनियनें शरीक हैं। यह सबसे ज्यादा अफसोसजनक है। बैंककर्मियों के वेतन म्यूनिसिपल कार्पोरेशन के स्तर से भी नीचे जा चुका है। पेंशनर्स तीन दशकों से अपनी मरी पेंशन को जिंदा समझ सीने से लगाये जी रहे है, इस उम्मीद से कि कभी उसमें कोई जान डाल देगा।
बैंकों में 7/8 लाख लोग काम कर रहे हैं। क्या हम उन्हे जिंदा लासे समझे? उनका कोई अपना जमीर नहीं है? वे क्यों इतने स्वार्थी हो जाते हैं कि अपने बुजुर्ग पेंशनर साथियों की आवाज नहीं बनते, साथ नहीं देते, सहारा नहीं देते? जिंदा रहते उन्हें देखना नहीं चाहते? कुछ दवाइयों और कुछ रोटियों के लिए मुहताज क्यों किया जा रहा है। कहां गया 'दुनिया के मजदूर एक हो' का उद्घोष? आज घर में ही इस तरह का बुरा वसूल क्यों?
(- J. N. Shukla, Alld, 25.9.2018)
Last year, about same time, in same matter of retirees mediclaim insurance matter, we were of the view, as narrated below. This time situations are much more gravious in nature precipitated due to increase in Premium to unbearable level.
Last year, as the record stands, thousands of low paid pensioners opted out of the scheme, since premium was sky-high and not in their reach. This time again thousands shall go out of scheme, since premium is likely to increase more than double. Year after year this problem of high premium shall drive out all Pensioners from the scheme.
A Minimum Free Insurance cover is the basic necessity to ensure minimum health protection to all. But, unfortunate situation is, UFBU, instead saying a word in this regard, is just talking about premium reduction. They are not looking to TPA-Chain Hospitals nexus, which are root cause of rising claim ratios. Recall to last year situation, as then narrated:
The Tricks That IBA have Played:
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"The IBA in their very clever move bargained Mediclaim Policy for working officers and employees and very cunningly IBA roped in retirees too with a view to reduce premiums on working employees which was to be borne by banks.
As the facts stand, before mediclaim policy, retirees were in many banks getting subsidy on Premium from Banks' Welfare Fund. Now, all banks had stopped it and whole premium is to be borne by individual retirees. Further, first year premium was quite low, last year it was unilaterally increased heftly. 10% OPD treatment was covered by additional premium.
This year though basic premium is kept same and a top up limit of one lakh is given on additional premium. If domestic cover is required, premium just become double plus.
In this deal IBA could reduce cost on existing employees and secondly enabled banks to stop subsidizing retirees prem.. Now, UIICL is taking the advantage by increasing premiums unilaterally. Retirees at this stage and age can't have any option, this very fact is known to IBA and UIICL.
Retirees are maltreated by IBA-UIICL combination. It all goes unnoticed by whosoever responsible in this matter."
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